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सप्तमं शतकम् दूसरे गांव को जाते समय जो अपने पीछे कुत्तों का झुण्ड लेकर चलती हैं, वह सदासुहागिन मेरी कुतिया सैकड़ों वर्ष जीती रहे । ८७ ॥ सच्चं साहसु देअर तह तह चहुआरएण सुणएण। णिवत्तिअकज्जपरम्मुहत्तणं सिक्खिअं कत्तो ॥ ८८ ॥
[ सत्यं कथय देवर तथा चाटुकारकेण शुककेन ।
निर्वतितकार्यपराङ्मुखत्वं शिक्षितं कस्मात् ।।] देवर ! सच बताओ, काम पूरा होने पर मुंह फेर लेना किस खुशामदी कुत्ते से सीखा है ।। ८८ ॥ पिप्पण्णसस्सरिद्धी सच्छन्दं गाइ पामरो सरए । दलिअणवसालितण्डुलधवलमिअङ्कासु राईसु ॥ ८९ ॥
[ निष्पन्नसस्यऋद्धिः स्वच्छन्दं गाइ पामरः शरदि ।
दलितनवशालितण्डुलधवलमृगाङ्कासु रात्रिषु ॥] जिसकी खेतो पक गई है, वह किसान तुरन्त कूटे हुए नये चावल के समान शुभ्र चाँदनी रात में स्वच्छन्द होकर गा रहा है ।। ८९ ॥ अलिहिज्जइ पङ्कअले हलालिचलणे फलमगोवोए । केआरसोअरुम्भणत स४िअ कोमलो चलणो ॥ ९०॥
[आलिख्यते पङ्कतले हलालिचललेन कलमगोप्याः।
केदारस्रोतोवरोधतिर्यक् स्थितः कोमलश्चरणः ।।] धान की रखवालो करने वाली तरुणी का कोमल चरण-जो क्यारी में पानी भरा होने के कारण कीचड़ में तिरछा पड़ा हुआ था-हल जोतते समय मिटा जा रहा है ॥ ९ ॥ विअहे दिअहे सूसइ सङ्केअअभङ्गवढिआसङ्का । आवण्डुणअमुही कलमेण समं कलमगोवी ॥ ९१ ॥
[ दिवसे दिवसे शुष्यति सङ्केतकभङ्गवर्धिताशङ्का। __ आपाण्डुरावनतमुखी कलमेन समं कलमगोपी ॥] जिसे 'सहेट' के उजड़ जाने की चिन्ता है, पीला मुंह झुकाये वह शालिरक्षिका धान के साथ दिन-दिन सूखती जा रही है ॥ ९१ ।।
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