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गाथासप्तशतो
कि इसके हृदय में अवश्य कोई प्रेयसी बसी है जिसकी रक्षा के लिये छाती के प्रहार से बचना चाहता है । यह वास्तविक अपराधी है । 'वज्जालग्ग' में इस गाथा का जो पाठ है उसमें तह उत्ति (तथैवेति) की उपस्थिति के कारण व्यंग्य की दिशा का ईषद् सांकेतिक आभास मिल जाता है । परन्तु प्रस्तुत पाठ में व्यंग्य की प्रतीति निगूढ है । व्यंग्य की अवगति के अभाव में रोषाविष्ट नायिका के रोने का कारण स्पष्ट नहीं हो सकता। यहां व्यंग्य वाच्यार्थ का साधक होने के कारग गुणीभूत हो गया है। ६३-पिअअमविइण्णचसअं अचक्खि पिअसहीए देतीए ।
अभणंतीएँ विमाणंसिणीएँ कहिओ चिचम विरोहो॥९११|| प्रियतमवितीर्ण चषकमनास्वादितं प्रियसख्या ददत्या ।
अभणन्त्याऽपि मनस्विन्या कथित एव विरोधः ।। "प्रियतम के द्वारा अर्पित मदिरा-चषक को न चखकर प्रिय सखी जब देने लगी तब कुछ न बोलती हुई भी मनस्विनी ने विरोध प्रकट कर ही दिया।"
बिना बोले विरोध प्रकट करनेवाली मनस्विनी और प्रिय सखी-दोनों पृथक-पृथक् महिलायें हैं । यहाँ प्रश्न यह उठता है कि मदिराचषक प्रदान करने वाला प्रियतम किसका है ? यदि प्रिय सखी का है तो जिसने बिना बोले विरोध प्रकट कर दिया उसकी गाँठ से क्या चला गया था ? यदि विरोध प्रकट करने वाली का है तो उसने (प्रियतम ने) प्रियतमा के अतिरिक्त अन्य को चषक क्यों दिया और उसने क्यों चखा नहीं ? अनुवाद की भाषा से लगता है कि मनस्विनी नायिका की सखी के प्रियतम ने उसे ( सखी को) मदिराचषक दिया था । वह उसे बिना चखे हो मनस्विनी नायिका को देने लगी। तब नायिका ने बिना बोले विरोध प्रकट कर दिया। इस वर्णन में विरोध का कारण स्पष्ट नहीं है। कोई प्रियतम अपनी प्रिया को मदिराचषक प्रदान करे और वह (प्रिया) उसे बिना चखे अपनी प्रिय सखी को दे दे तो उसकी बहुत बड़ी उदारता है। इससे सखी का सम्मान सूचित होता है । प्रसन्न होने के स्थान पर वह विरोध क्यों प्रकट करेगी ? यदि मदिराचषक प्रदान करने वाले से उसका प्रच्छन्न-प्रणय है तो विरोध भी सम्भव है । किन्तु यह स्थिति तो तब आती जब गाथा की संस्कृतच्छाया शुद्ध होती । "पिअसहीए' में सम्प्रदानार्थक चतुर्थी है। मनस्विनी और प्रियसखी का समानाधिकरण अप्रासंगिक है। शुद्ध संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी :
प्रियतमवितीर्ण चषकमनास्वादितं प्रियसख्यै ददत्या। अभणन्ल्याऽपि मनस्विन्या कथित एव विरोधः।
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