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अर्थनिरूपण
गाथा का भाव यह है। अपराधी नायक नायिका को प्रसन्न करने के लिये उसे मदिराचषक प्रदान करता है। नायिका उसे स्वयं न पीकर अपनी सखी को दे देती है। इस प्रकार वह यद्यपि वाणी से नायक का विरोध नहीं करती तथापि उसके द्वारा सादर और सप्रणय प्रदत्त मधुचषक को अस्वीकृत कर अपना विरोध व्यंजित कर देती है । यहाँ चषक का अस्वीकरण ही वाणी के अभाव में विरोध का प्रकाशक है। ६४. तणुआइआ वराई दिअहे दिअहे मिअंकलेहाव्व ।
बहुलपओसेण तुए णिसंस ! अंधारिअ मुहेण ॥९१३॥
तनुकायिता बराकी दिवसे दिवसे मृगाङ्कलेखेव ।
बहुलप्रदोषेण त्वया नृशंस ! अन्धकारितमुखेन ॥ ___ "रे नृशंस ! बहुत दोषों से भरे कलमुंहे तेरे कारण (पक्ष में बहुल प्रदोष = कृष्णपक्ष के कारण ) वह बेचारी चन्द्रलेखा की भाँति दिन-दिन दुबराती जा रही है।" ___इस अनुवाद में क्षीण होने (दुबराने) का सामान्य कारण ही उल्लिखित है । दिन-दिन क्षीण होने का कोई विशेष कारण भी अपेक्षित है । अनुवादक ने प्रदोष और अन्धकारितमुख के उभयपक्षीय अर्थों का उद्घाटन नहीं किया है।
गाथा का उचित अर्थ यह है :
नृशंस जिसका अगला भाग ( मुख ) अन्धकारयुक्त है, उस कृष्णपक्ष (बहुल) के सन्ध्याकाल ( प्रदोष ) में जैसे चन्द्रकला दिन-दिन क्षीण होती जाती है, उसी प्रकार अत्यधिक दोषों वाले एवं ( उसके ) मुख पर कालिक पोतने वाले ( अन्धकारितमुखेन') तेरे कारण वह बेचारी क्षीण हो गई है। ___ यहाँ नायक के कुकृत्यों से नायिका के मुख पर कालिख लगना क्षीणता का विशेष कारण है। ६५. भिउडी ण कआ कडुअं णालविअं अहरअं ण पज्जु ।
उवऊहिआ ण रुण्णा एएण वि जाणिमो.माणं ॥९१५॥ भृकुटिर्न कृता कटुकं नालपितं अधरकं न प्रजुष्टम् । उपगूढा न रुदिता एतेनापि जाने मानम् ॥
"उसने भृकुटी नहीं की, कडुई न बोली, अधर को न काटा, मुझे आलिंगन किया और न रोई, इतने पर भी हमें मालूम है कि वह रूठ गई है।"
गाथा में नायिका को चेष्टाओं एवं क्रियाओं से मान का प्रत्यक्ष प्रकाशन १. अन्धकारितं श्यामीकृतं ( नायिकायाः ) मुखं येन इत्यर्थः।
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