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गाथासप्तशती
न होने पर भी नायक को उसका आभास हो जाने का जो सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक वर्णन है उसे अनुवाद व्यक्त नहीं कर सका है। 'अधर को न काटना' ऐसो चेष्टा है जिससे मान का प्रत्यक्ष प्रकाशन हो जाता है । गाथा में 'एतेनापि ' ( इससे भी ) के माध्यम से मानप्रकशनाभाव वर्णित है । जो मान चेष्टा के द्वारा प्रकाशित हो जाता है उसे सभी जान लेते हैं, यदि नायक ने भी जान लिया तो ऐसी कौन-सी अनहोनी बात हो गई जिसके कारण वह अपने ज्ञान का ढिढोरा पीटने लगा । नायिका का उपगूहन व्यापार ( मुझे आलिंगन किया ) तो मान का अस्तित्व ही समाप्त कर देता है । अत: असद्भूत मान का ज्ञान निरर्थक है ।
'पज्जुट्ठ' कम्पनवाची देशी शब्द है । 'अहरअं ण पज्जुट्ठ' का अर्थ हैअधर काँपे नहीं । संस्कृतच्छाया में 'प्रजुष्ट' के स्थान पर 'प्रकम्पितम्' होना चाहिये | गाथा का अर्थ यह है :
( प्रिया ने ) भौंहें नहीं चढ़ाई, ( टेढी कीं ) कटु भाषण नहीं किया, उसके अधर भी नहीं काँपे, आलिंगित होने पर वह रोई भी नहीं, इतने पर भी मैं जानता हूँ कि वह रूठ गई है । यद्यपि ये सभी उपयुक्त व्यापार प्रणयानुकूल हैं तथापि नायक को प्रिया के मनोगत मान का आभास मिल ही जाता है । यदि प्रेयसी ने रोष से भ्रूभंग नहीं किया तो प्रणयव्यंजक हाव-भाव ही कहाँ प्रदर्शित किये ? यदि कटु भाषण नहीं किया तो मधुर वचनों से स्वागत भी नहीं किया, यदि वह आलिंगित होने पर रोई नहीं तो उसने स्वयं प्रियतम का आलिंगन भी तो नहीं किया । प्रणयसूचक उपगूहन व्यापार भी नायक की ही ओर से हुआ है । नायिका का यह निर्लिप्त और निर्विकार भाव ही मान का अनुभावक है । प्रणय अवरोध और सहयोग दोनों का आकांक्षी है । नायक को दोनों में से एक भी नहीं मिला । मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह गाथा साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि की है ।
६६. परिपुच्छिआ ण जंपसि चुम्ब्रिज्जंती बला मुहं हरसि । परिहासमाणविमुहे ! पसिअच्छि ! मअं मह वूमेसि ॥ परिपृष्टा न जल्पसि चुम्ब्यमाना बलान्मुखं हरसि । परिहासमानविमुखे ! प्रसृताक्षि ! मनो मे दुनोषि ॥
" पूछने पर नहीं बोलती, चुम्बन करने पर बल से मुंह फेर लेती है, परिहास करने पर विमुख हो जाती है, अरी ! फैली आँखों वाली ! तू हमारा मन दुखा रही है ।"
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