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________________ अर्थनिरूपण हृदये रोषोद्गीणं पादप्रहारं शिरसि प्रार्थयमानः । तथैवेति प्रियो मनस्विन्या स्थूलाश्रु रुदितम् ।। "प्रिय ने रोष के कारण मन ही मन पदप्रहार को सिर पर मांगा तो मनस्विनी ने नहीं मारा और मोटे-मोटे आंसू ढार कर रोने लगी।" "विमर्श-नायिका प्रिय पर रुष्ट होकर उस पर मन ही मन पादप्रहार करने लगी, जब प्रिय ने प्रत्यक्ष रूप से उसके पादप्रहार को अपने शिर पर मांगा तो रोने लगी।" यह अनुवाद नितान्त उपहासास्पद है । प्रिय के द्वारा मन ही मन की गई पाद प्रहार की प्रार्थना को नायिका जान कैसे गई ? और बिना जाने उसने मारना कैसे छोड़ दिया ? अनुवाद में नायक के द्वारा मन ही मन पादप्रहार के माँगने का वर्णन है । विमर्श में नायिका के द्वारा मन ही मन पादप्रहार करने की बात लिखी गई है और नायक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पादप्रहार की याचना है । दोनों में एक ही संभव है । "प्रिय ने रोष के कारण मन ही मन पदप्रहार को सिर पर मांगा।" इस अनुवादस्थ वाक्य में नायक के रोष को पदप्रहार शिर पर मांगने का हेतु बताया गया है। यह नितान्त अनुचित है । कोई भी रोषाविष्ट व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उस पर प्रहार हो । वस्तुतः न तो नायिका की मनोगत प्रहारेच्छा नायक को ज्ञात हो सकती है और न नायिका ही नायक की मनोगत प्रहार-याचना को जान सकती है। अतः यह अनुवाद एक तमाशा बन गया है। गाथा की संस्कृतच्छाया मूलानुसारिणी नहीं है । अनुवादक के अनुसार वह वज्जालग्ग से ली गई है, परन्तु वज्जालग्ग में गाथा का पाठ इस प्रकार है : हिअए रोसुग्गिण्णो पायपहारं सिरम्मि पत्थंतो । तह उत्ति पिओ माणंसिणीइ थोरंसुअं रुण्णं ॥ उक्त संस्कृतच्छाया इसी पाठ पर अवलम्बित है । अनुवादक ने पाठ भेद होने पर भी इसी के अनुसार गाथा को अनूदित किया है । प्रस्तुत गाथा की शब्दानुसारिणी संस्कृतच्छाया यों होगी : हृदये रोषोत्क्षिप्तं पादप्रहारं शिरसि प्रार्थयमान : । न हतो दयितो मनस्विन्या स्थलाश्रकं रुदितम् ।। यह खंडिता नायिका का वर्णन है । नायिका ने अपराधो नायक की छाती (हृदय) पर प्रहार करने के लिए जैसे ही चरण उठाया तैसे ही उसने ( नायक ने ) अपना शिर आगे कर दिया। यह देखकर मनस्विनी नायिका ने उसे मारा नहीं । वह स्थूलाच गिराकर रो पड़ी। नायक ने छाती को प्रहार से बचाने की जो चेष्टा की उसी में नायिका के रोने का हेतु छिपा है । वह तुरन्त समझ गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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