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गाथासप्तशती उप्पाइअदव्वाण वि खलाणे को भाअणं खलो च्चे। पक्काई वि णिम्बफलाई णवर काएहिं खज्जन्ति ॥४८॥ [ उत्पादितद्रव्याणामपि खलानां को भाजनं खल एव ।
पक्कान्यपि निम्बफलानि केवलं काकैः खाद्यन्ते ।।] धनोपार्जन करने वाले खलों के दान का पात्र कौन है ? खल ! पके हुए नीम के फल कोए ही खाते हैं ॥४८॥ अज्ज मए गन्तव्वं घणन्धआरे वि तस्स सुहअस्स । अज्जा णिमीलिअच्छी पअपरिवाडि घरे कुणइ ॥ ४९ ॥ [ अद्य मया गन्तव्यं घनान्धकारेऽपि तस्य सुभगस्य ।
आर्या निमीलिताक्षी पदपरिपाटि गृहे करोति ।।] आज रात्रि में घना अन्धकार होने पर भी प्रिय के लिये अभिसार करना है, यह सोचकर नायिका घर में ही आँखें बन्द कर चलने का अभ्यास करने लगी ॥ ४९ ॥
सुअणो ण कुप्पइ व्विअ अह कुप्पइ विप्पिण चिन्तेइ । अह चिन्तेइ ण जम्पइ अह जम्पइ लज्जिओ होइ ॥ ५० ॥ [ सुजनो न कुप्यत्येव अथ कुप्यति विप्रियं न चिन्तयति ।
अथ चिन्तयति न जल्पति अथ जल्पति लज्जितो भवति ।।] सज्जन कभी कोप हो नहीं करते, यदि करते हैं तो किसी का अहित नहीं चाहते, यदि चाहते है तो मुँह से नहीं कहते, यदि कहते हैं तो लज्जित हो जाते है ॥५०॥
सो अत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं णिरन्तरं वसणे । तं रूअं जत्थ गुणा तं विण्णाणं जहिं धम्मो ॥५१॥
[ सोऽर्थो यो हस्ते तन्मित्रं यन्निरन्तरं व्यसने ।
तद्रूपं यत्र गुणास्तद्विज्ञानं यत्र धर्मः॥] धन वही है, जो अपने हाथ में हो, मित्र वही है, जो विपत्ति में निरन्तर साथ दे, रूप वही है, जिसमें गुण हो और ज्ञान वही है, जिसमें धर्म हो का ५१॥
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