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तृतीयं शतकम् धनवान् का स्वच्छन्द विहार, प्रिया का मान, समर्थ की क्षमा, विद्वान् का भाषण और मूर्ख की मौन-ये शोभित होते हैं ॥ ४३ ॥ वेविरसिण्णकरगुलिपरिगहक्खसिअलेहणोमग्गे । सोत्थि विअ ण समप्पइ पिअसहि लेहम्मि किं लिहिमो॥४४ ॥ [ वेपनशीलस्विन्नकराङ्गलिपरिग्रहस्खलितलेखनीमार्गे ।
स्वस्त्येव न समाप्यते प्रियसखि लेखे किं लिखामः ।।] सखी ! कांपती हुई स्वेदार्द अँगुलियों से पकड़ने पर स्खलित हो जाने वाली लेखनी से 'स्वस्ति' ही पूरा-पूरा नहीं लिख पा रही हूँ तो पत्र) कैसे लिखगी ॥४४॥ देवम्मि पराहुत्ते पत्तिअ घडिपि विहडइ गराणं । कज्जं वालुअवरणं व्व कहँ वि बन्धं विअ ण एइ ॥ ४५ ॥ [ देवे पराङ्गमुखे प्रतीहि घटितमपि विघटते नराणाम् ।
कार्य वालुकावरण इव कथमपि बन्धमेव न ददाति ॥] विश्वास रखो, दैव के विमुख हो जाने पर बनी हुई वस्तु भी नष्ट हो जाती है । बालू की दीवार के समान कोई भी कार्य स्थिर नहीं हो पाता ॥ ४५ ॥ मामि हिअ व पीतेण जुआणेण मज्जमाणाए। व्हाणहलिद्दाकडुअ अणुसोत्तजलं पिअन्तेण ॥ ४६ ॥
[ मातुलानि हृदयमिव पीतं तेन यूना मज्जन्त्याः ।
स्नानहरिद्राकटुकमनुस्रोतो जलं पिबता ।।] के मामी ! स्नान करते समय नदी की धारा के पानी को जो हल्दी का अंगराग मिल जाने से कटु हो गया था-पोने वाले युवक ने मानों मेरा हृदय भी पो लिया है ॥ ४६ ॥
जिवि असास विअ ण णिवत्तइ जोव्वणं अतिक्कन्तं । दिअहा दिअहेहिं समा ण होन्ति कि णिठुरो लोओ ॥ ४७ ।।
[ जीवितमशाश्वतमेव न निवर्तते यौवनमतिक्रान्तम् ।
दिवसा दिवसैः समा न भवन्ति किं निष्ठुरो लोकः ।।] जोवन क्षण भंगुर है। गया हुआ यौवन फिर लौट कर नहीं आता । सभी दिन समान नहीं होते, फिर भी लोग इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं ? ॥ ४७ ।।।
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