SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयं शतकम् चन्दमुहि चन्दधवला दोहा दोहच्छितुह विओअम्मि । चउजामा सअजाम व जामिणी कहँ वि वोलीना ॥ ५२ ॥ [ चन्द्रमुखि चन्द्रधवला दीर्घा दीर्घाक्षि तव वियोगे । चतुर्यामा शतयामेव यामिनी कथमप्यतिक्रान्ता ॥ ] चन्द्रवदने ! विशाल नेत्रे ! तेरे वियोग में चार पहर की लम्बी शुभ्र चाँदनी रात सौ पहर समान किसी प्रकार बीत गई ।। ५२ ॥ अउलीणो दोमुहओ ता महुरो भोअणं मुहे जाव । मुरओ व्व खलो जिण्णम्मि भाअणे विरसमारसइ ॥ ५३ ॥ [ अकुलीनो द्विमुखस्तावन्मधुरो भोजनं मुखे यावत् । मुरज इव खलो जीर्णे भोजने विरसमारसति ॥ ] असत्कुल में उत्पन्न दोमुह दुष्ट मनुष्य, पृथ्वी का स्पर्श न करने वाले ( अ + कु + लीन ) दोमुहें मृदंग के समान मुँह में भोजन ठूप देने पर मधुर शब्द करता है परन्तु उसके जीण हो जाने पर कटु शब्द करने लगता है ॥ ५३ ॥ तह सोण्हाइ पुलइओ दरवलिअन्तद्वतारअं पहिओ । जह वारिओ वि धरसामिएण ओलिन्दए वसिओ ॥ ५४ ॥ [ तथा स्नुषया प्रलोकितो दरवलितार्धतारकं पथिकः । यथा वारितोऽपि गृहस्वामिता अलिन्दके सुप्तः ॥ ] ६१ आँखों की आधी पुतलियों को किंचित् नचाती हुई बहू ने कुछ यों देखा कि गृहस्वामी के मना करने पर भी वह पथिक अलिन्द पर टिक ( बस ) गया ॥ ५४ ॥ लहुअन्ति लहुं पुरिसं पव्वअमेतं पि दो वि कज्जाई । णिव्वरणमणिव्वूढे णिव्वूढे जं अ णिश्वरं ॥ ५५ ॥ [ लघयतो लघु पुरुषं पर्वतमात्रमपि द्वे अपि कार्ये । निर्वरणमनिर्व्यूढे निर्व्यूढे यच्च निर्वरणम् ॥ ] किसी कार्य को न करने के पूर्व और करने के पश्चात् कह देना, ये दो बातें पर्वत के भी समान मनुष्य का गौरव घटा देती हैं ।। ५५ ।। कं तुमथणुक्खितेण पुत्ति दारट्टिआ पलोएसि । उणामिअकलस णिवेसिअग्घकमलेण व Jain Education International For Private & Personal Use Only मुहेण ॥ ५६ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy