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________________ गाथासप्तशतो [कं तुङ्गस्तनोत्क्षिप्तेन पुत्रि द्वारस्थिता प्रलोकयसि । उन्नामितकलशनिवेशितार्घकमलेनेव मुखेन ॥ ] तुम द्वार पर खड़ी होकर किसे निहार रही हो ? उन्नत उरोजों पर झुका हुआ तुम्हारा बदन यों प्रतीत होता है जैसे ऊँचे कलश पर पूजा का पद्म रखा हो ॥ ५६ ॥ वइविवरणिग्गअदलो. एरण्डो साहइ व्व तरुणाणं । एत्थ घरे हलिअवहू एद्दहमेत्तत्थणो वसइ ॥ ५७ ॥ [वृतिविवरनिर्गतदल एरण्डः साधयतोव तरुणेभ्यः । अत्रगृहे हलिकवधूरेतावन्मात्रस्तनी वसति ॥] जिसके पत्ते बाड़ के छिद्रों से बाहर निकल आये हैं, वह रेड का पौधा मानों तरुणों को सूचना दे रहा है कि इस घर में इतने बड़े स्तनों वाली कृषकवधू विद्यमान है ॥ ५७ ॥ गअकलहकुम्भसंणिहघणपीणणिरन्तरेहिं तुमहि । उस्ससिपि ण तोरइ किं उण गन्तुं हअथणेहि ॥ ५८ ॥ [ गजकलभकुम्भसंनिभघनपोननिरन्तराभ्यां तुङ्गाभ्याम् । उच्छ्वसितुमपि न तीरयति किं पुनर्गन्तुहतस्तनाभ्याम् ।।] गजकुंभ के समान कसे, मोटे और सटे हुए उत्तुंग उरोजों के भार से वह -सुकुमारी साँस भी नहीं ले सकती चलना तो बहुत दूर है ॥ ५८ ॥ मासपसूअं छम्मासगन्भिणि एक्कदिअहजरिअॅच । रगुत्तिण्णं च पि पुत्तअ कामन्तओ होहि ॥ ५९ ॥ [ मासप्रसूतां षण्मासभिणोमेकदिवसज्वरितां च। रङ्गोत्तीर्णा च प्रियां पुत्रक कामयमानो भव ॥] पुत्र ! एक दिन की रुग्णा, छः मास की गर्भिणी, मास-प्रसूता एवं रंगशाला से लौटी हुई प्रिया की कामना करो ॥ ५९ ॥ पडिवक्खमण्णुपुज्जे लावण्णउडे अणमगअकुम्भे । पुरिससअहिअअधरिए कोस थणन्ती थणे वहसि ॥ ६॥ [प्रतिपक्षमन्युपुजौ लावण्यकुटावनङ्गगजकुम्भो। पुरुषशतहृदयघृतौ किमिति स्तनन्तो स्तनौ वहसि ॥] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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