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________________ तृतीयं शतकम् जो प्रतिपक्षियों के संताप-पुंज, लावण्य के कलश तथा अनंग-मदकल के कुम्भ हैं, तथा जिनकी अभिलाषा सैकड़ों तरुणों के मन में रहती है, उन पयोधरों को इतने गर्व से क्यों ढो रही हो ? ॥ ६० ॥ घरिणिघणत्थणपेल्लणसुहेल्लिपडिअस्त होन्तपहिअस्स । अवसउणङ्गारअवारविट्ठिदिअहा सुहावेन्ति ॥ ६१ ॥ [गृहिणोधनस्तनप्रेरणसुखकेलिपतितस्य भविष्यत्पथिकस्य । अपशकुनाङ्गारकवारविष्टिदिवसाः सुखयन्ति ।। ] लेटे-लेटे पत्नी के उन्नत कुचों का मर्दन करने की सुखद क्रीड़ा करते हुए 'प्रेमी को-जिसे शीघ्र ही परदेश की यात्रा करनी है-अपशकुन मंगलवार और भद्रा के दिवस बहुत सुख देते हैं ।। ६१ ॥ सा तुह कएण बालअ अणिसं घरदारतोरणणिसण्णा । ओससई वन्दणमालिअ व विअहं विअ वराई ॥६२॥ [सा तव कृतेन बालकानिशं गृहद्वारतोरणनिषण्णा । अवशुष्यति वन्दनमालिकेव दिवसमेव वराको ॥] बेटा! तुम्हारी प्रतीक्षा में गृह द्वार के तोरण पर अहरह बैठी हुई वह तरुणी वन्दनवार को भांति दिनों-दिन सूखती जा रही है ।। ६२ ।।। हसि सहत्थतालं सुक्खवडं उवगएहिं पहिएहि । पत्तअफलाणं सरिसे उड्डोणे सूअविन्दम्मि ॥ ६३ ॥ _ [हसितं सहस्ततालं शुष्कवटमुपगतैः पथिकैः । पत्रफलानां सदृशे उड्ढाने शुकवृन्दे ।।] बरगद का वृक्ष सूख गया था किन्तु शुकों के बसेरा लेने से पत्तों और फलों से लदा सा प्रतीत होता था। श्रान्त पथिक छाया के लोभ से जैसे हो उसके नीचे पहुँचे, वे 'फुर' से उड़ गये, यह देख वे बटोही तालियां बजाकर हंस *पड़े ॥ ६३ ॥ अज्ज म्हि हासिआ मामि तेण पाएसु तह पडन्तेण । तोए वि जलन्ति दीववत्तिमन्भुण्णअन्तीए ॥ ६४ ॥ [अद्यास्मि हासिता मातुलानि तेन पादयोस्तथा पतता। तयापि ज्वलन्तीं . . दीपवर्तिमभ्युत्तेजयन्त्या ॥] ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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