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गाथासप्तशती मामी ! जब वह उस प्रकार चरणों पर गिरकर प्रिया की आराधना कर रहा था तो उसने जलते हुये दोपक की बाती और भी उसका दी, यह देख मुझे हंसी आ गई ।। ६४ ॥
अणुवत्तणं कुणन्तो वेसे वि जणे अहिण्णमुहराओ। अप्पवसो वि हु सुअणो परव्वसो आहिआईए ॥६५॥ [ अनुवर्तनं कुर्वन्द्वेष्येऽपि जनेऽभिन्नमुखरागः।
आत्मवशोऽपि खलु सुजनः परवशः कुलोनतायाः ।।] द्वैष्य व्यक्तियों का अनुवर्तन करने पर भी उसके मुख पर कोई विकार लक्षित नहीं होता। सज्जन स्वच्छन्द होने पर भी कुलीनता के अधीन होता है ।। ६५ ॥ अणुदिअहवड्ढिआअरविण्णाणगुणेहि जणिअमाहप्पो । पुत्तअ अहिआअजणो विरज्जमाणो वि दुल्लक्खो ॥६६॥ [ अनुदिवसधितादरविज्ञानगुणैर्जनितमाहात्म्यः ।
पुत्रकाभिजातजनो विरज्यमानोऽपि दुर्लक्ष्यः ।।] बेटा ! अहरह वर्द्धमान आदर एवं विज्ञान के गुणों से जिसने महत्त्व प्राप्त कर लिया है। वह कुलीन पुरुष विरक्त होने पर भी कठिनाई से लक्षित होता है ॥ ६६ ॥ विण्णाणगुणमहग्धे पुरिमे वेसत्तणं पि रमणिज्ज । जणणिन्दिए उण जणे पिअत्तणेणावि लज्जामो ॥ ६७ ॥
[विज्ञानगुणमहाघे पुरुषे द्वेष्यत्वमपि रमणीयम् ।
जननिन्दिते पुनजने प्रियत्वेनापि लज्जामहे ॥] ज्ञान सम्पन्न होने से जिसका मूल्य बढ़ गया है, वह व्यक्ति यदि द्वेष भी रखे तो श्लाघ्य है किन्तु लोक में दिन पुरुष के प्रेम से भी मैं लज्जित हूँ ॥ ६७॥ कहँ णाम तीअ तह सो सहावगुरुओ वि थणहरो पडिओ। अहवा महिलाण चिरं को वि ण हिअम्मि संठाइ ॥६८॥
[ कथं नाम तस्यास्तथा स स्वभावगुरुकोऽपि स्तनभरः पतितः।
अथवा महिलानां चिरं कोऽपि न हृदये संतिष्ठते ।] स्वभाव से ही उन्नत उसके पयोधर अब गिर गये हैं, महिलाओं के हृदय में कोई चिरकाल तक स्थान नहीं पाता ।। ६८॥
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