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तृतीयं शतकम्
सुअणु वअणं छिवन्तं सूरं मा साउलीअ वारेहि । एअस्स पङ्कअस्स अ जाणउ कअरं सुहप्पंसं ॥६९ ॥
[ सुतनु वदनं स्पृशन्तं सूर्य मा वस्त्राञ्चलेन वारय ।
एतस्य पङ्कजस्य च जानातु कतरत्सुखस्पर्शम् ॥] कृशांगि ! आनन का स्पर्श करते हुये सूर्य को वस्त्रांचल से मत रोको, जिससे वह समझ ले कि इसमें और पंकज में किसका स्पर्श अधिक सुखद
माणोसहं व पिज्जइ पिआइ माणंसिणीअ दइअस्स । करसंपुडवलिउद्घाणणाइ महराइ गण्डूसो॥ ७० ॥ [ मानौषधमिव पीयते प्रियया मनस्विन्या दयितस्य ।
करसंपुटवलितो/ननया मदिराया गण्डूषः ॥] प्रिय ने दोनों हाथों से पकड़ कर जिसका मुख उन्नमित कर लिया था, वह मनस्विनी दयिता मदिरा का घूट मानौषधि के समान पी रही है ।। ७० ॥ कह सा णिव्वणिज्जइ जीअ जहा लोइअम्मि अङ्गम्मि । विट्ठी दुव्वलगाई व्व पङ्कपडिआ ण उत्तरइ ।।७१॥
[कथं सा निर्वर्ण्यतां यस्या यथालोकितेऽङ्गे ।
दृष्टिदुर्बला गौरिव पङ्कपतिता नोत्तरति ।। ] उसे कैसे देखू ? जिसके अंग पर दृष्टि पड़ने पर, पंक में फंसी दुर्बल गाय के समान निकल ही नहीं पाती ॥ ७१ ।। कोरन्ती स्विअ णासइ उअए रेह व्व खलअणे मेत्ती। सा उण सुअणम्मि कआ अणहा पाहाणरेह व्व ॥७२॥
[क्रियमाणैव नश्यत्युदके रेखेव खलजने मैत्रो।
सा पुनः सुजने कृता अनघा पाषाणरेखेव ॥] खलों को मैत्री पानी की रेखा के समान होते ही मिट जाती है और सज्जनों की मैत्री शिलारेख के समान अमिट रहती है ॥ ७२ ॥ अव्वो दुक्करआरअ पुणो वि तन्ति करेसि गमणस्स । अज्ज वि ण होन्ति सरला वेणीअ तरङ्गिणो चिउरा ॥७३॥
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