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गाथासप्तशती ___लतापक्ष में-हे कष्माण्डिके (कुम्हड़े की लता ) तू अपनी शाखाओं में नहीं समा रही है, और जिस प्रकार दूसरे की बाड़ को भी लांघ जाना चाह रही है उससे तो आज या कल में ही पुष्पित हो जायगी, क्योंकि पूर्णवृद्धि के पश्चात् हो फूल आते हैं )।
नायिका पक्ष-हे कुतुहल रखने वाली 'मृगलोचने' तू मर्यादा ( देहली') में नहीं समा रही है ( मर्यादा का अतिक्रमण कर रही है ) और जिस प्रकार पराये पति के पास भी जाना ( लघि = जाना ) चाह रही है उससे तो आज या कल में ही फूल जायेगी अर्थात् गर्भवती हो जायेगी । विरहकिसिआ वराई दिणाइ आसण्णगिम्हपरिणामाई। कढिणहिअओ पवासी ण आणिमो कह समप्पिहिइ ॥८००॥
[विरह कृशिता वराकी दिनान्यासन्नग्रीष्मपरिणामानि ।
कठिनहृदयः प्रवासी न जाने कथं समर्पिष्यते ॥] "बेचारी विरह के मारे दुबरा गई है, समीप पहुँचे ग्रीष्म काल में दिन बड़े होने लगेंगे, प्रवासी कठिन हृदय वाला है, कैसे गुजरेगा? हमें समझ में नहीं आता।"
इस अनुवाद में 'गुजरेगा' किसके लिये आया है-यह स्पष्ट नहीं है । 'समप्पिहिसि' क्रिया एकवचन है उसका अन्वय बहुवचन दिनानि से सम्भव नहीं है । वराकी स्त्रीलिंग अतः 'गुजरेगा' यह क्रिया उससे सम्बद्ध हो नहीं सकती। रह गया प्रवासी । वह तो कठिन हृदय ठहरा । उसे गुजरने और न गुजरने की चिन्ता ही कहाँ है ?
वस्तुतः 'समप्पिहिइ' का संस्कृत रूपान्तरण ही अप्रासंगिक है । रोआविअम्हि माए अंगणपहिएण दरपसुत्तेण । परिवत्तसुमाणिणि माणिणि त्ति सिविणे भणतेण ॥ ८०१॥
] रोदिताऽश्मि मातः! अङ्गण पथिकेन दर प्रसुप्तेन ।
परिवर्तस्व मानिनि मानिनीति स्वप्ने भखता ॥] "आँगन में सोये पथिक ने सपनाते हुये कहा-हे स्वामिनि, हे मानिनि, प्रसन्न हो' (यह सुनकर) माँ, हमें रुलाई आ गई है। उपयुक्त अनुवाद में परिवर्तस्व का अर्थ ठीक नहीं है। उसका अर्थ "करवट लो" है "प्रसन्न" नहीं। १. मर्यादावाचक वेला शब्द लकारद्वित्व की दशा में वेल्ला का आकार धारण
करेगा । पुनः आदीतो बहुलम् ( प्राकृत प्रकाश ५।२४ के अनुसार ईकारान्त
हो जाने पर वेल्ली बन जायेगा। २. लघि धातु ( लंघ् ) गत्यर्थक है ।
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