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अर्थनिरूपण
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उपर्युक्त अनुवाद और संस्कृतच्छाया - दोनों अशुद्ध हैं । 'पत्नियों की आँखें मूंद रखी हैं - यह कर्तृहीन वाक्य असम्बद्ध प्रलाप-सा प्रतीत होता है । 'घोरंति' का अर्थ 'चिल्लाना' नहीं है । सोते समय नाक से जो घर्घर शब्द निकलता है उसके लिये प्राकृत में देशज घोरंति क्रिया का प्रयोग होता है । गाथा का शुद्ध संस्कृत रूपान्तर यह होगा -
[ अन्तर्निभृतस्थितपरिणनान्यवरुद्धद्वारनयनानि । ग्रीष्मे घरघररवेण घुरघुरायन्त इव गृहाणि ॥ ]
शुद्ध संस्कृतच्छायानुसारी अनुवाद यह है
ग्रीष्म में जिनके भीतर परिजन शान्त हो गये हैं, जिन के द्वार नयनों के समान बन्द हैं, वे घर मानों चक्की को घर्घर-ध्वनि-द्वारा सोते समय नाक से निकलने वाला घर्घर शब्द कर रहे हैं ( अर्थात् मानो नींद में खर्राटे ले रहे हैं । )
गाथा में मध्याहन की निस्तब्धता में भीतर चलने वाली चक्की की घर्घराहट और द्वारावरोध के आधार पर प्रसुप्त घर के खर्राटे लेने की संभावना की गई है
जइ वेल्लीहि ण माअसि जह इच्छसि परवई पि लंघेउ । तह पूर्ण कोहलिए ! अज्जं कल्हि व फुल्लिहिसि ।। ७९७ ।। [ यथा वल्लीभिर्न मासि यथेच्छसि परवृतिमपि लङ्घयितुम् ।
तथा नूनं कूष्माण्डके ! अद्य कल्यं वा स्फुटिष्यसि ॥ ] "री कुम्हड़ी ! तू तो अपनी लतरों में नहीं अँटती और दूसरों के घेरे ( वृति) को पार कर जाना चाहती है तो निश्चय ही आज या कक में ही टूट जायेगी ।"
यह अनुवाद अशुद्ध है क्योंकि 'स्फुटिष्यति' का प्राकरणिक अर्थं टूटना नहीं, खिलना है | अनुवादक ने श्लेष पर भी ध्यान नहीं दिया है । हलिए, 'परवद्द', और 'फुल्लिहिसि' में अत्यन्त स्वाभाविक रूप से श्लेष आया है । 'परवइ' के दो अर्थ हैं - १. ( परवृति ) पराई बाड़, २. ( परपति ) पराया पति । शेष दोनों पदों के अर्थ इस प्रकार हैं
कोहलिआ = १ . ( वनस्पति पक्ष ) कुम्हड़े की लता ।
२. ( नायिका पक्ष ) कुतूहल रखने वाली ।
फुल्लिहिसि = १. ( लता पक्ष ) फूल जायेगो अर्थात् पुष्पित हो जायेगी । २. ( नायिका पक्ष ) फूल जायेगी अर्थात् गर्भवती हो जायेगी । गाथा का वास्तविक अर्थ यह होगा
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