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अर्थनिरूपण सुख का परित्याग कर दुराग्रह पूर्वक कठोरतपःक्लेश भोगने वाले तरुण को दुष्ट समझती हुई कुढ़ कर कहती है
( उसका ) स्तोत्र मुक्तिमात्र है, मुक्तिमात्र में भक्त खल मनुष्य असहाय ( अगति ) अवस्था के भीतर दिवस व्यतीत करता है। उक्त तरुणी अपनी ही स्तुति ( प्रशंसा ) और अपनी ही भक्ति ( अनुराग ) चाहती थी किन्तु तरुण उसके अनुकूल व्यवहार नहीं कर रहा था, और विषयसुख का परित्याग कर तपस्या का कष्ट भोग रहा था, अतः वह चिढ़ कर उसे दुष्ट कह रही है । गाथा में प्रयुक्त मात्र और खल शब्द तरुणी के प्रति तरुण की अनासक्ति एवं तरुण के प्रति तरुणी के आक्रोश की अभिव्यक्ति करते हैं। २. सोवि जुआ माणहणो तुमं वि माणस्सअसहणा पुत्ति ।
मत्तच्छलेण गम्मउ सुराइ उरि पुससु हत्थं ॥७१०।। सोऽपि युवा मानधनस्त्वमपि मानस्यासहना पुत्रि! मत्तच्छलेन गच्छ सुराया उपरि स्पृश हस्तम् ।।
इस गाथा के उत्तरार्ध के अर्थ को अस्पष्ट कहकर पूर्वार्ध का अनुवाद इस प्रकार दिया गया है
__ "वह तरुण भी मानी प्रकृति का है और हे पुत्रि ! तू भी किसी का मान ( शान ) बर्दाश्त नहीं करती।"
उत्तरार्ध का भाव हृदयंगम करने के लिये गाथा का प्रसंग-निर्देश अनिवार्य है। मानी नायक और मानिनी नायिका एक दूसरे से पृथक रहने लगे हैं, कोई किसी से संपर्क नहीं कर रहा है । कोमल-हृदया नायिका अधिक समय तक मान का निर्वाह न कर सकने के कारण अधीर हो गई है। वह नायक से मिलने के लिये अकुला रही है परन्तु अपने मान की प्रतिष्ठा बचाने के लिये लज्जावश उसके निकट नहीं जा रही है। कुशल दूती यह रहस्य जान लेती है । वह उसे परामर्श देती है कि तुम मदिरा से मतवाली हो जाने का छल ( बहाना ) करो
और नायक के निकट चली जाओ। वह बेचारा तो यही समझेगा कि तुम नशे में अपनी सुध-बुध खोकर संयोगवश यहाँ आ गई हो। इस प्रकार प्रतिष्ठा भी बच जायेगी और प्रियतम का सुखद संयोग भी सुलभ हो जायेगा। इसके पश्चात् तुम मदिरा से हाथ पोंछ लेना ( अर्थात् मदिरा कभी मत पीना।) अब गाथा के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध का सम्मिलित अर्थ यह होगा
हे पुत्रि ! वह युवक भी मान का धनी है और तुम भी मान को नहीं सह सकती हो । अतः मतवाली होने का छल करके उसके निकट चली जाओ। उसके पश्चात् ( उवरि ) मदिरा से हाथ पोंछ लेना । ( मदिरा कभी मत पीना ।)
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