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________________ १२० गाथासप्तशती [ मुखप्रेक्षकः पतिस्तस्याः सापिं खलु सविशेषदर्शनोन्मत्ता | द्वावपि कृतार्थी पृथिवीममहिलापुरुषामिय मन्येते ॥ ] पति सदा उसका मुंह निहारता ही रहता है और वह भी उसे देखते ही उन्मत्त हो जाती है । दोनों कृतार्थं होकर पृथ्वी में अन्य किसी दम्पत्ति की कल्पना ही नहीं करते ॥ ९८ ॥ खेमं कन्तो खेमं जो सो खुज्जम्बओ घरद्दारे । तस्स किल मत्थआओ को वि अणत्यो समुत्पण्णो ।। ९९ ।। [ क्षेमं कुतः क्षेमं योऽसौ कुब्जाम्रको गृहद्वारे । तस्य किलमस्तकाकोऽप्यनर्थः समुत्पन्नः ॥ ] कुशल पूछते हो ? कुशल है कहाँ ? गृह-द्वार पर वह जो छोटा-सा रसाल है, उसके शिखर से कोई अनर्थ प्रकट हुआ है ।। ९९ ।। आउच्छण विच्छाअं जाआइ मुहं णिअच्छमाणेण । पहिएण सोअणिअलाविएण गन्तु विवरण इट्ठ ॥ १०० ॥ [ आपृच्छनविच्छायं जायायाः मुखं निरीक्षमाणेन । पथिकेन शोकनिगडितेन गन्तुमेव नेष्टम् ॥ ] प्रयाण की अनुमति माँगते ही प्रिया का मुरझाया हुआ आनन देखकर शोकमग्न पथिक ने यात्रा स्थगित कर दी ॥ १०० ॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छल पमुहसुकइणिम्मइए । सत्तसअम्मि समत्तं पञ्चमं गाहासअं एअ ॥ १०१॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सल प्रमुख सुकविनिर्मिते । सप्तशत के समाप्तं पञ्चमं गाथाशतकमेतत् ॥ ] जिनमें हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा रची हुई, रसिकों के हृदय को प्रिय सप्तशतक का पंचम शतक समाप्त हो गया ।। १०१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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