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गाथासप्तशती
[ मुखप्रेक्षकः पतिस्तस्याः सापिं खलु सविशेषदर्शनोन्मत्ता | द्वावपि कृतार्थी पृथिवीममहिलापुरुषामिय मन्येते ॥ ]
पति सदा उसका मुंह निहारता ही रहता है और वह भी उसे देखते ही उन्मत्त हो जाती है । दोनों कृतार्थं होकर पृथ्वी में अन्य किसी दम्पत्ति की कल्पना ही नहीं करते ॥ ९८ ॥
खेमं कन्तो खेमं जो सो खुज्जम्बओ घरद्दारे ।
तस्स किल मत्थआओ को वि अणत्यो समुत्पण्णो ।। ९९ ।।
[ क्षेमं कुतः क्षेमं योऽसौ कुब्जाम्रको गृहद्वारे । तस्य किलमस्तकाकोऽप्यनर्थः समुत्पन्नः ॥ ]
कुशल पूछते हो ? कुशल है कहाँ ? गृह-द्वार पर वह जो छोटा-सा रसाल है, उसके शिखर से कोई अनर्थ प्रकट हुआ है ।। ९९ ।।
आउच्छण विच्छाअं जाआइ मुहं णिअच्छमाणेण । पहिएण सोअणिअलाविएण गन्तु विवरण इट्ठ ॥ १०० ॥ [ आपृच्छनविच्छायं जायायाः मुखं निरीक्षमाणेन । पथिकेन शोकनिगडितेन गन्तुमेव नेष्टम् ॥ ]
प्रयाण की अनुमति माँगते ही प्रिया का मुरझाया हुआ आनन देखकर शोकमग्न पथिक ने यात्रा स्थगित कर दी ॥ १०० ॥
रसिअजणहिअअदइए कइवच्छल पमुहसुकइणिम्मइए । सत्तसअम्मि समत्तं पञ्चमं गाहासअं एअ ॥ १०१॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सल प्रमुख सुकविनिर्मिते । सप्तशत के समाप्तं पञ्चमं गाथाशतकमेतत् ॥ ] जिनमें हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा रची हुई, रसिकों के हृदय को प्रिय सप्तशतक का पंचम शतक समाप्त हो गया ।। १०१ ।।
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