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पञ्चम शतकम् रोवन्ति व्व अरण्णे दूसहरइकिरणफंस संतत्ता ।
अइतारझिल्लिविरुएहि पाअवा गिम्हमज्झर्ते ॥ ९४ ॥ - [रुदन्तीवारण्ये दुःसहरविकिरणस्पर्शसंतप्ताः।
अतितारझिल्लोविरुतैः पादपा ग्रीष्ममध्याह्न ॥] ग्रीष्म की दोपहरी में . सर्य की असह्य किरणों के स्पर्श से सन्तप्त वृक्ष झिल्ली की तीव्र झनकार के शब्दों में मानों अरण्य रोदन कर रहे हैं ।। ९४ ॥
पढमणिलीणमहुरमहुलोहल्लालिउलबद्धझंकारं । अहिमअरकिरणणिउरम्बचुम्बिदलइ कमलवणं ॥१५॥ [ प्रथमनिलीनमधुरमधुलुब्धालिकुलबद्धझंकारम् ।।
अहिमकरकिरणनिकुरम्बचुम्बितं दलति कमलवनम् ॥] .. जिसमें पहले से ही सम्पुटित मधुर मधुलुब्ध मधुकर झंकार कर रहे थे, वह कमल-वन अंशु मालो की किरणों का चुम्बन पाकर विकसित हो रहा
गोत्तक्खलणं सोऊण पिअअमे अज्ज तीअ खणदिअहे । वज्झमहिसस्स माल व्व मण्डणं उअह पडिहाइ ॥ ९६ ॥ [गोत्रस्खलनं श्रुत्वा प्रियतमे अद्य तस्याः क्षणदिवसे ।
वध्यमहिषस्य मालेव मण्डनं पश्यत प्रतिभाति ।।] - देखो, आज पर्व के दिन प्रिय का गोत्र-स्खलन सुनकर उसे अपना सारा श्रृंगार ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वध्य महिष के गले में पड़ी हुई माला ।। ९६ ।। महमहइ मलअवाओ "अत्ता वारेइ मं घराणेन्ती । अङ्कोल्लपरिमलेण वि जो क्खु मओ सो मओ व्वेअ॥ ९७ ॥ [ महमहायते मलयवातः श्वश्रुर्वारयति मां गृहान्निर्यान्तीम् ।
अङ्कोटपरिमलेनापि यः खलु मृत स मृतः एव ॥] मलयानिल महमहा रहा है । साप मुझे घर से निकलने नहीं देती । अंकोट की सुगन्ध से भी जो मर गया, उसे मरा ही समझो ।। ९७ ॥ महपेच्छओ पई से सा वि हु सविसेसदसणुम्मइआ। दोवि कअत्था पुहई अमहिलपुरिसं व मण्णन्ति ॥ ९८॥
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