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गाथासप्तशती
__ हमें दर्शन दे जाते हो, प्यार से बोलते हो, सुभग ! इतना तो स्नेह है । अपना हृदय निकालकर कौन किसे दिखाता है ।। ८९ ॥ उअ लहिउण उत्ताणिआणणा होन्ति के वि सेविसं । रित्ता णमन्ति सुइरं रहट्टघडिअ व कापुरिसा ॥ ९० ॥ [ उदकं लब्ध्वा उत्तानितानना भवन्ति केऽपि सविशेषम् ।
रिक्ता नमन्ति सु चिरं रहट्ट (अरघट्ट) घटिका इव कापुरुषाः ।।] कापुरुष रिक्त होनेपर रहट की घटिका के समान बहुत ही विनम्र बन जाते है किन्तु रस पा जाने पर मुंह ही फेर लेते हैं । ९० ॥ भग्गपिअसङ्गमं केत्ति व जोह्लाजलं णहसरम्मि । चन्दअरपणालणिज्झरणिवहपडन्तं ण पिढाइ ॥ ९१ ॥ [ भग्नप्रियसङ्गमं कियदिव ज्योत्स्नाजलं नभःसरसि ।
चन्द्रकरप्रणालनिर्झरनिवहपतन्न निस्तिष्ठति ।। ] इस गगन-सरोवर में प्रियतम के मिलन की आशा तोड़ देने वाला कितना अधिक ज्योत्स्ना-जल भरा हुआ है, जो चन्द्रमा की असंख्य किरणों की नली से भरने के रूप में बहने पर भी नहीं समाप्त होता है ।। ९१ ॥
सुन्दरजुआणजणसंकुले वि तुह दसणं विमग्गन्ती । रण व्व भमइ दिट्ठी वराइआए समुन्विग्गा ॥ ९२ ॥
[सुन्दरयुवजनसङ्कलेऽपि तव दर्शनं विमार्गयन्ती।
अरण्य इव भ्रमति दृष्टिर्वराकिकायाः समुद्विग्ना ।।। असंख्य युवकों की भीड़ में भी केवल तुम्हारा मुंह ढूंढ़ने वाली उस तरुणी की आकुल दृष्टि मानों शून्य अरण्य में भटक रही है ।। ९२ ॥
अइकोवणा वि सासू रुआविआ गअवईअ सोलाए । पाअपडणोण्णआए दोसु वि गलिएसु वलएसु ॥ ९३ ॥
[ अतिकोपनापि श्वश्रु रोदिता गतपतिकया स्नुषया।
पादपंतनावनतया द्वयोरपि गलितयोवलययोः । ] चरणों की वन्दना के लिए झुकी हुई गतपतिका बहू के दोनों हाथों के कंकण च्युत हो जाने पर अत्यन्त कोपना सास को भी रुलाई आ गई ॥ ९३ ।।
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