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________________ तृतीयं शतकम् ११७ तुम्हारे हृदय में मेरा हृदय निहित है, मेरी दृष्टि तुम्हारे मुख पर चित्रलिखित सी निश्चल है केवल आलिंगन से वंचित अंग हैं ॥ ८५ ॥ कृश होते जा रहे अअं विओअतणुई दुसहो विरहाणलो चलं अप्पाहिज्जउ कि सहि जाणसि तं चैव जं [ अहं वियोगतन्वी दुःसहो विरहानलश्चलं अभिधीयतां किं सखि जानासि त्वमेव यद्युक्तम् ॥ ] जीवम् । मैं वियोग से कुश हो गई हूँ, मेरे प्राण चंचल हैं, असह्य विरहानल में जल रही है, मेरी सखी! मैं क्या कहूँ ? जो उचित है वह तुम्हीं जानती हो ॥ ८६ ॥ तुह विरहुज्जागरओ सिविणे वि ण देइ दंसणसुहाई । वाहेण जहालोअणविणोअणं से हअं अण्णावराहकुविओ जहतह कालेण वेसत्तणा वराहे कुविअं कहें तं [ तव विरहोज्जागरकः स्वप्नेऽपि न ददाति दर्शनसुखानि । वाष्पेण यदालोकन विनोदनं तस्या हतं तदपि ॥ ] विरह उसे जगा जगाकर स्वप्न में भी तुम्हारे दर्शन का आनन्द नहीं लेने देता, किसी प्रकार तुम्हें देखकर मनोविनोद कर लेती थी किन्तु अब आँसुओं ने उसे भी समाप्त कर दिया है ।। ८७ ।। जीअं । जुतं ॥ ८६ ॥ [ अन्यापराधकुपितो यथातथा कालेन द्वेष्यत्वापराधे कुपितं कथं तं तं पि ॥ ८७ ॥ गम्मइ पसाअं । Jain Education International पसाइस्सं ॥ ८८ ॥ गच्छति प्रसादम् । प्रसादयिष्यामि ॥ ] अन्य किसी अपराध से कुपित पुरुष कभी न कभी अवश्य प्रसन्न हो जाता है किन्तु जो मुझसे घृणा करता है, उसका कोप भला कैसे शान्त करूँगी ? ॥ ८८ ॥ दीससि विआणि जम्पसि सबभावो सुहअ एत्तिअ वेअ । फालेइऊण हिअअं साहसु को दावए कस्स ॥ ८९ ॥ [ दृश्यसे प्रियाणि जल्पसि सद्भावः सुभग एतावानेव । पाटयित्वा हृदयं कथय को दर्शयति कस्य ॥ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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