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षष्ठं शतकम् सूईवेहे मुसलं विच्छुहमाणेण दड्ढलोएण । एक्कग्गामे वि पिओ समअं अच्छीहि वि ण दिट्ठो॥ १॥
[सूचीवेधे मुसलं निक्षिपता दग्धलोकेन । ___ एकग्रामेऽपि प्रियः समाभ्यामक्षिभ्यामपि न दृष्टः ॥] सूई के छेद से मूसल निकालने वाले दुष्ट लोगों के कारण एक हो गांव में रह कर भी मैंने उन्हें भरपूर नहीं देखा ।। १ ।।
अज्जं पि ताव एक्कं मा मं वारेहि पिअसहि रुन्ति । कल्लि उण तम्मि गए जइ ण मआ ता ण रोदिस्सं ॥२॥ [ अद्यापि तावदेकं मा मां वारय प्रियसखि रुदतीम् ।
कल्ये पुनस्तस्मिन्गते यदि न मृता तदा न रोदिष्यामि ॥] मेरी सखी! आज केवल एक दिन मुझे मत मना करो, जी भर कर रो लेने दो, कल यदि उनके चले जाने पर भी न मर गई तो नहीं रोऊँगी ॥२॥ एहि त्ति वाहरन्तम्मि पिअअमे उअह ओणअमुहीए । विउणावेटिअजहणत्यलाइ लज्जाणअं हसि ॥ ३ ॥
[ एहीति व्याहरति प्रियतमे पश्यतावनतमुख्या। ___ द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया लज्जावनतं हसितम् ॥] 'देखो आओ' यह कह कर प्रिय के बुलाने पर नतवदना सुन्दरी ने साड़ी के छोर से अपनी जाँघों को और भी ढकते हुये लजा कर हंस दिया ॥ ३ ॥
मारेसि कंण मुद्धे इमेण पेरन्तरत्तविसमेण । भुलआचावविणिग्गअतिक्खअरद्धच्छिभल्लेण ॥ ४ ॥ [ मारयसि कं न मुग्धे अनेन पर्यन्तरक्तविषमेण ।
भ्रूलताचापविनिर्गततीक्ष्णतरार्धाक्षिभल्लेन ॥] जिनके कोण लोहित हो रहे हैं, मुग्धे ! उन भ्रू-चाप से छूटे हुये तोखे कटाक्ष-बाणों से तू किसे नहीं मारतो है ॥ ४ ॥
तुह सणे सअह्ला सदं सोऊण जिग्गदा जाई। तइ वोली ताई पाइँ वोढविआ जाआ ॥५॥
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