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________________ १२२ गाथासप्तशतो [तव दर्शने सतृष्णा शब्दं श्रुत्वा निर्गता यानि । त्वयि व्यतिक्रान्ते तानि पदानि वोढव्या जाता ॥] तुम्हारा शब्द सुन कर वह दर्शन के लोभ से सहसा जितने डग बाहर निकल आये थे, उन्हें ही तुम्हारे चले जाने पर अन्य लोगों ने आकर अपने स्थान से हटाया ॥ ५॥ ईसामच्छररहिएहि णिविआरेहि मामि अच्छीहिं । एहि जणो जम्मिव णिरिच्छए कहँ ण छिज्जामो ॥६॥ [ईर्ष्यामत्सररहिताभ्यां निर्विकाराभ्यां मातुलान्यक्षिभ्याम् । इदानीं जनो जनमिव निरोक्षते कथं न क्षोयामहे ।। ] मामी ! इस समय प्रेमी मुझे सिर्फ ईर्ष्या और मत्सर-शून्य निर्विकार नेत्रों से यों देखने लगा है, जैसे मैं अपरिचित हूँ दुबली क्यों न हो जाऊँ ? ॥६॥ वाउद्धअसिचअविहाविओरुदिटुंण दन्तमग्गेण । वहुँमाआ तोसिज्जइ णिहाणकलसस्स व मुहेण ॥७॥ [वातोद्धतसिचयविभावितोरुदृष्टेन दन्तमार्गेण । वधूमाता तोष्यते निधानकलशस्येव मुखेन ॥] पवन में फहराते हुये वस्त्र के भीतर से दिखलाई पड़ जाने वाली जाँघ पर अंकित दन्तरेखा को देखते ही बहू की माता यों प्रसन्न हो गई जैसे गड़ी हुई निधि के कलश का मुंह देख लिया हो ॥ ७ ॥ हिअअम्मि वससि ण करेसि मण्णु तह विहअरिएहि । सङ्किज्जसि जुअइसुहावलिअधीरेहि अम्हेहिं ॥ ८॥ [ हृदये वससि न करोषि मन्यु तथापि स्नेहभृताभिः। शङ्कयसे युवतिस्वभावगलितधैर्याभिरस्माभिः॥ ] यद्यपि तुम हृदय में ही निवास करते हो, कभी रुष्ट भी नहीं होते, फिर भी हम प्रेमिकायें-जो अनुराग में रंगी हुई हैं-स्त्री-स्वभाव के कारण अधीर होकर तुम्हारे प्रति सन्देह ही करती रहती हैं ॥ ८॥ अण्णं पि कि पि पाविहिसि मूढ मा तम्म दुक्खमेत्तेण । हिअअ पराहीणजणं मग्गॅन्त तुह केत्ति एअं॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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