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________________ षष्ठं शतकम् [ अन्यदपि किमपि प्राप्स्यसि मूढ मा ताम्य दुःखमात्रेण । हृदय पराधीनजनं मृगयमाण तव कियन्मात्रमिदम् ॥ ] अरे अभी कुछ और मिलेगा, मूढ़ ! दुःख मात्र से इतना व्यथित न हो जा । पराधीन जन की कामना करने वाले हृदय ! तेरे लिए यह कौन बड़ी बात है ॥ ९ ॥ वेसोसि जीअ पंसुल अहिअअरं सा हु वल्लभा तुज्झ । इअ जाणिऊण वि मए ण ईसिअ दड् ढपेम्मस्स ॥ १० ॥ [ द्वेष्योऽसि यस्या: पांसुल अधिकतरं सा खलु वल्लभा तव । इति ज्ञात्वापि मथा न ईष्यितं दग्धप्रेम्णः ॥ ] अरे नीच ! जो तुम्हें घृणा करती है, उसो को तुम बहुत प्यार करते हो - यह जान कर भी मैं उस जल-भुने प्रेम से ईर्ष्या नहीं करती ॥ १० ॥ १२३. सा आम सुहअ गुणरूअसोहिरी आम णिग्गुणा अ अहं । भण तीअ जो ण सरिसो कि सो सव्वो जणो मरउ ॥ ११ ॥ [ सा सत्यं सुभग गुणरूपशोभनशीला सत्यं निर्गुणा चाहम् । भण तस्या यो न सदृशः किं स सर्वो जनो म्रियताम् ॥ ] अच्छा वह असीम रूप और गुणों से भूषित है, यह सत्य है कि हम बिल्कुल गुणहीन हैं । किन्तु जो उसकी समानता नहीं कर सकतीं वे सब क्या मर जायँ ? ॥ ११ ॥ सन्तमसन्तं दुक्खं सुहं च जाओ घरस्स जाणन्ति । ता पुत्तअ महिलाओ सेसाओ जरा मनुस्साणं ॥ १२ ॥ [ सदसद्दुःखं सुखं च या गृहस्य जानन्ति । ता पुत्रक महिलाः शेषा जरा मनुष्याणाम् ॥ Jain Education International बेटा ! जो घर का भला और बुरा दुःख और सुख जानती हैं, वे ही तो स्त्रियाँ हैं, शेष तो पुरुषों के लिए जरा रूप हैं ॥ १२ ॥ हसिएहि उवालम्भा अच्चुवचारेहिं रूसिअव्वाई । अंहिं भण्डणाई एसो मग्गो सुमहिलाणं ॥ १३ ॥ [ हसितैरुपालम्भा अत्युपचारेः खेदितव्यानि । अश्रुभिः कलहा एष मार्गः सुमहिलानाम् ॥ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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