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________________ १२४ गाथासप्तशता अच्छी महिलाओं में हास्य से उपालम्भ देना, बहुत आदर से रोष प्रकट - करना एवं आँसुओं से ही कलह करने की परम्परा है ॥ १३ ॥ उल्लावो मा दिज्जउ लोअविरुद्ध त्ति णाम काऊण । सॅमुहापहिए को उण वेसे वि दिट्ठ ण पाडेइ ॥ १४ ॥ [ उल्लापो मा दीयतां लोकविरुद्ध इति नाम कृत्वा । संमुखापतिते कः पुनर्देष्येऽपि दृष्टि न पातयति ॥ ] " उसने लोक-विरुद्ध होने के कारण वैसा आचरण किया है" ऐसा बकवाद मत करो, सम्मुख आ जाने पर क्या शत्रु पर भी किसी की दृष्टि नहींपड़ती ॥ १४ ॥ साहीणपिअअमो दुग्गओ वि मण्णइ कअत्यमप्पाणं । पिअरहिओ उण पुहवि वि पाविउण दुग्गओ च्चेअ ॥ १५ ॥ [ स्वाधीनप्रियतमो दुर्गतोऽपि मन्यते कृतार्थमात्मानम् । प्रियरहितः पुनः पृथिवीमपि प्राप्य दुर्गंत एव ।। ] जिसकी प्रिया उसके वश में रहती है, वह निर्धन होने पर भी अपने को - कृतार्थ समझता है परन्तु प्रिया हीन व्यक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाकर भी - अकिंचन है ।। १५ ॥ कि रुवसि कि अ सोअसि किं कुप्पसि सुअणु एक्कमेक्कस्स । पेम्मं विसं व विसमं साहस को रुन्धिउं तरइ ॥ १६ ॥ [ किं रोदिषि च शोचसि किं कुप्यसि सुतनु एकैकस्मै । प्रेम विषमिव विषमं कथय को रोद्धुं शक्नोति ॥ ] क्यों रोती हो ? क्यों सोच करती हो ? क्यों प्रत्येक व्यक्ति पर कोप - करती हो ? विष के समान विषम प्रेम को भला कौन रोक सकता है ॥ १६ ॥ ते अ जुआणा ता गाम संपआ तं च अम्ह तारुण्णं । अक्खाणअंव लोओ कहेहि अम्हे वि तं सुणिमो ॥ १७ ॥ [ ते च युवानस्ता ग्रामसंपदस्तच्चास्माकं तारुण्यम् । आख्यानकमिव लोकः कथयति वयमपि तच्छृणुमः ॥ ] वे ही युवक हैं, गाँव का वही वैभव है और वही हमारा यौवन है ! लोग - कहानी की भाँति कहते हैं और हम भी सुनती हैं ॥ १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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