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षष्ठं शतकम्
वाहोहभरिअगण्डाहराएँ भणिअं विलक्खहसिरोए । अज्ज वि किं रूसिज्जइ सवहावत्थं गअं पेम्मं ॥ १८ ॥
[ बाष्यौघभूतगण्डाधरया भणितं विलक्षहसनशीलया । अद्यापि किं रुष्यते शपथास्थां गतं प्रेम ॥ ]
जिसके अधर और कपोलों पर आँसू ढुलक रहे थे उस सुन्दरी ने लज्जा से हँसते हुए कहा - " जब तुम्हारा प्रेम शपथ पर ही अवलम्बित रह गया तब भी क्या मैं रूठूंगी ॥ १८ ॥
वण्णअघ अलिप्पमुहिं जो मं अइआअरेण चुम्बन्तो ।
एहि सो भूसणभूसिअं पि अलसाअइ छिवन्तो ॥ १९ ॥
[ वर्ण घृतलिप्तमुखीं यो मामत्यादरेण चुम्बन् । इदानीं स भूषणभूषितामप्यलसायते स्पृशन् ॥ ]
जो हल्दी और घृत से पुते हुए मेरे मुख को अति आदर से चूम लेता था उसे इस समय भूषणभूषित होने पर भी मेरा स्पर्श करने में भी आलस्य लगता है ॥ १९ ॥
णीलपडपाउअङ्गी त्ति मा हु णं परिहरिज्जासु ।
पट्टसूअं पि णद्धं रअम्मि अवणिज्जइ चे अ ॥ २० ॥ [ नीलपटप्रावृताङ्गोति मा खल्वेनां परिहर । पट्टांशुकमपि नद्धं रतेऽपनीयत एव ॥ ]
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इसके अंग नीले वस्त्र से ढके हैं, इसीलिए इसे त्याग मत देना । रति के समय तो धारण किये हुए पट्टांशुक भी उतार कर रख दिये जाते हैं ॥ २० ॥
सच्चं कलहे कलहे सुरआरम्भा पुणो णवा होन्ति ।
माणो उण माणसिणि गरुओ पेम्मं विणासेइ ॥ २१ ॥
[ सत्यं कलहे - कलहे सुरतारम्भाः पुनर्नवा भवन्ति । मानः पुनर्मनस्विनि गुरुकः प्रेम विनाशयति ॥ ]
कलह-कलह में ही सचमुच रति में एक नवीन रस आ जाता है, किन्तु आवश्यकता से अधिक मान तो प्रेम को ही नष्ट कर देता है ।। २१ ॥
माणुम्मत्ताइ मए अकारणं कारणं कुणन्तोए । अहंसणेण पेम्मं विणासिअं पोढवाएण ॥ २२ ॥
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