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________________ १२६ गाथासप्तशती [ मानोन्मत्तया मया अकारणं कारणं कुर्वत्या । अदर्शनेन प्रेम विनाशितं प्रौढवादेन ॥] हाय ? मान से मतवाली होकर मैंने उसे भी रूठने का कारण बनाया जिसे नहीं बनाना चाहिए था और उनकी ओर न देखकर प्रबल विवाद ( कलह ) के द्वारा प्रेम का विनाश कर डाला ॥ २२ ॥ अणुऊलं विअ वोत्तु बहुवल्लह वल्लहे वि वेसे वि । कुविअं अ पसाएऊं सिक्खइ लोओ तुमाहित्तो ॥ २३ ॥ [ अनुकूल वक्तु बहुवल्लभवल्लभेऽपि द्वेष्येऽपि । कुपितं च प्रसादयितु शिक्षते लोको युष्मत्तः ।।] अरे बहबल्लभ ! प्रिय एवं अप्रिय दोनों से मधुर ही भाषण करना और रूठ जाने पर मना लेना, लोग तुमसे ही सीखते हैं ॥ २३ ॥ लज्जा चत्ता सोलं अ खण्डिअं अजसघोसणा दिण्णा । जस्स कएणं पिअसहि सो च्चेअ जणो जणो जाओ ॥ २४ ॥ [लज्जा त्यक्ता शीलं च खण्डितमयशोघोषणा दत्ता। यस्य कृतेन (कृतेमनु) प्रिय सखि स एव जनो जनो जातः॥] जिसके लिए मैंने लज्जा छोड़ी, शील खण्डित किया और अपयश का ढोल पीटा, सखी ? अब उसी ने मुझसे मुंह फेर लिया है ॥ २४ ॥ हसिअं अदिटुदन्तं भमिअमणिक्कन्तदेहलोदेसं । विट्ठमणुक्खित्तमुहं एसो मग्गो कुलवहूर्ण ॥ २५ ॥ [ हसितमदृष्टदन्तं भ्रमितमनिष्क्रान्तदेहलोदेशम् । दृष्टमनुत्क्षिप्तमुखमेष मार्गः कुलवधूनाम् ।।] कुलीन बहुओं की यही परिपाटी है कि वे हँसती हैं तो दाँत नहीं दिखाई पड़ते, चलती हैं तो देहलो के बाहर नहीं जातों और देखती हैं तो मुंह ऊपर नहीं करतीं ॥ २५ ॥ धूलिमइलो वि पङ्कङ्किओ वि तणरइअदेहभरणो वि । तह वि तइन्दो गरुअत्तणेण ढक्कं समुव्वहइ ॥ २६ ॥ [धूलिमलिनोऽपि पङ्काङ्कितोऽपि तृणरचितदेहभरणोऽपि । तथापि गजेन्द्रो गुरुकत्वेन ढक्कां समुद्वहति ।। ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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