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यद्यपि गजेन्द्र का शरीर धूलि से उसकी जीविका तृणों से ही चलती है । से यश की दुन्दुभी बजा देता है ॥ २६ ॥
षष्ठं शतकम्
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मलिन एवं पंक से लिप्त रहता है । फिर भी जहाँ जाता है, अपनी गुरुता ( अथवा युद्ध में दुन्दुभी ढोता है | )
करमरि कीस ण गम्मइ को गव्वो जेण मसिणगमणासि । अद्दिदन्तहसिरीअ जम्पिअं चोर जाणिहिसि ॥ २७ ॥
[ बन्दि किमिति न गम्यते को गर्यो येन मसृणगमनासि । अदृष्टदन्त हसनशीलया जल्पितं चोर ज्ञास्यसि ॥ ]
बन्दिनी ! चलती क्यों नहीं ? किस गर्व से तेरी गति मन्द हो गई ? सुन्दरी बिना दांत दिखाये हँसकर कहा - " चोर ! अभी जान लोगे ॥ २७ ॥
थोरंसुएहि रुष्णं सवत्तिवग्गेण पुप्फवइआए । भु असिहरं पणो पेछिऊण सिरलग्गतुप्पलिअं ॥ २८ ॥
[ स्थूलाश्रुभी रुदितं सपत्नीवर्गेण पुष्पवत्याः । भुजशिखरं पपुः प्रेक्ष्य शिरोलग्नवर्णघृतलिप्तम् ॥ ]
पति के कन्धों को शिर पर लगे हल्दी और धूल से लिप्त देखकर पुष्पवती नायिका की सपत्नियाँ बड़े-बड़े आंसू गिरा कर रोने लगीं ॥ २८ ॥
लोओ जूरह जूरउ वणिज्जं होउ होउ तं णाम । एहि णिमज्जसु पासे पुप्फबइ ण एइ मे विद्दा ॥ २९ ॥
[ लोकः खिद्यते खिद्यतु वचनीयं भवति भवतु तन्नाम । एहि निमज्ज पार्श्वे पुष्पवति नैति मे निद्रा ॥ ]
लोग दुखी होंगे, होने दो ! निन्दा होगी, होने दो ! पुष्पवती प्रिये ! मेरे निकट सो जाओ ! मुझे नींद नहीं आ रही है ॥ २९ ॥
जं जं पुलमि दिसं पुरओ लिहिअ व्व दोससे तत्तो । तुह पडिमा पडिवाड वहइ सअलं दिसाअक्कं ॥ ३० ॥
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[ यां यां प्रलोकयामि दिशं पुरतो लिखित एव दृश्यसे तत्र । तव प्रतिमापरिपाटीं वहतीव सकलं दिशाचक्रम ॥ ]
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