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गाथासप्तशतो उसके साधन या करण के रूप में तृतीयान्तपद 'नामेणं' आया है। यदि साधनरूप 'खग्ग' को साधनरूप, णामेणं का उपमान मानते हैं तो अन्वय के लिये 'खग्ग' में भी णाम के समान तृतीया विभक्ति आवश्यक हो जाती है। अतः पदान्विति के लिये :दिण्णे नग्गे व्व' के स्थान पर दिण्णखग्गेण व ( दत्तखड्गेनेव ) पाठ समीचीन ठहरता है । चतुर्थपादगत 'हित्थ' की प्रसंगानुकूल व्याख्या सम्भव नहीं है । यदि 'हित्थ' में 'हि' के स्थान पर स रख देते हैं तो सत्थ शब्द बन जाता है । यह प्रसंगानुकूल अर्थ भी देता है। अतः गाथा को इस प्रकार पढ़ना होगा
गामम्मि सोहणाई दिण्णखग्गेण व चोरसत्थाई।
गहवइणो णामेणं कियाइँ अण्णण वि जणेण ।। संस्कृतच्छाया यह होगी
ग्रामे मोहनानि दत्तखड्गेनेव चौरस्वस्थानि ।
गृहपतेनम्निा कृतान्यन्येनापि जनेन ॥ अन्वय-गृहपतेर्नाम्ना दत्तखड्गेनेव अन्येनापि जनेन ग्रामे मोहनीय चौरस्वस्थानि कृतानि ।
प्रसंग-किसी ग्राम का प्रचंड शर एवं प्रतापी गृहपति दिवंगत हो चुका है, फिर भी उसके नाम का आतंकपूर्ण प्रभाव अब भी शेष है। वह ग्रामवासियों को खड्ग ( तलवार ) के समान अपना विश्रुत नाम देकर मरा है । साधारण मनुष्य भी उसका नाम लेकर दस्युओं को भगा देता है । इस प्रकार दस्युमुक्त वातावरण में तरुणियां निर्भय होकर रतिकोड़ायें करती रहती हैं। उनके रमणकाल में आक्रान्ताओं का भय नहीं रहता।
अर्थ-गृहपति के नाम से अन्य जन्य ने भी ग्राम में (तरुणियों के ) रमण (मोहन ) चोरों से स्वस्थ ( भयमुक्त ) कर दिया है, मानो उसे ( नाम के रूप में ) तलवार दे दी गई है।
मलिनाई अंगाई बाहिरलोएण मंसलुद्धण । हिययं हियएण विणा ण वेइ वाही भमइ हटें ॥ ७८८॥ [ मलिनांन्यङ्गानि बाह्यलोकेन मांसलुब्धेन ।
हृदयं हृदयेन विना न ददाति व्याधी भ्रमति हाटम् ॥] उपयुक्त संस्कृतच्छाया में हाटम् के स्थान पर हट्टं होना चाहिये। इस गाथा का अनुवाद यों किया गया है
"बाजार-व्याध की स्त्री के अंग मलिन हैं, बाहर के मांस-लोभी लोगों को वह हृदय के बिना हृदय नहीं देती और बाजार में घमती है।"
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