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अर्थनिरूपण को लपेट में जो रूई बन गया है (रूई के समान जल रहा है । ) उस यूथ ( झण्ड) को निकाल ले जाना यथाधिप ( प्रमुख गज) ही जानता है। ___यहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा में प्रयुक्य यथाधिप शब्द किसी संकटापन्न जनोद्धारक शूर का प्रतीक है।
अल्लग्गकवोलेण वि गयमइणा पत्तदसावसणम्मि । अज्ज वि माए सणाहं गयवइजूहं धरतेण ॥ ७८५ ॥
प्रस्तुत गाथा का अर्थ अस्पष्ट बताया गया है । न तो इस की संस्कृतच्छाया है और न अनुवाद । द्वितीय पाद में लिपिभ्रंश के कारण 'गयवइणा' के स्थान पर गयमइणा हो गया है । इसकी संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी
आग्रकपोलेनापि गजयतिना प्राप्तदशाव्यसने । अद्यापि मातः सनाथं गजपतियूथंध्रिगमाणेन ॥ ( जीवता)
गाथा अप्रस्तुत प्रशंसा-शैली में गजपति के प्रतीक द्वारा एक ऐसे प्रथितपराक्रम ग्राम्यपाल का वर्णन करती है जो आजीवन ग्रामवासियों की रक्षा करते. करते अतिवृद्ध हो चुका है, परन्तु उसके कारण अब भी लोग अपने को पूर्ण सुरक्षित समझते हैं।
गाथार्थ-हे मां! वृद्धावस्था (आर्ह हुई दशा आप्ता दशा) के व्यसन ( संकट ) में भी जिसके कपोल का अग्रभाग ( मद से ) आई हैं उस जीवित गजेन्द्र ( गजपति ) के द्वारा आज भी गजों का झुण्ड सनाथ है।
यह किसी ग्राम्या का कथन है । गामम्मि मोहणाई दिण्णे खग्गे व्व चोरहित्थाई । गहव इणो णामेणं कियाइ अण्णण वि जाणेण ॥ ७८७॥ "तलवार-अस्पष्ट ॥ ७८७" ।
इस गाथा की भी अस्पष्टता का उल्लेख किया गया है । न अनुवाद है; न संस्कृतच्छाया । सम्पादक के अनुसार इसमें तलवार का वर्णन है, परन्तु यह उसका भ्रममात्र है, क्योंकि, खग्ग ( तलवार ) के अनन्तर सम्भावना-द्योतक व्व निपात के प्रयोग से उस (खग्ग ) का अप्रकृत होना निश्चित है । कवि का वर्ण्यविषय अप्रकृत नहीं, प्रकृत होता है। अतः उद्धृत गाथा का वर्ण्यविषय कुछ और ही वस्तु होगी जिसमें 'खग्ग' को सम्भावना को गई है। "दिणे', 'खग्गे' और 'गामम्मि'-इन तीनों पदों में समासनिमुक्त या समासयुक्त अवस्था में पारस्परिक विशेषण-विशेष्य-भाव सम्भव नहीं है । ये ऐसी उपमा के अंगभूत उपमान भी नहीं हो सकते क्योंकि उत्तरार्ध में कोई भी प्रकृतभूत सप्तम्यन्त पद नहीं है । उत्तरार्धगत तृतीयान्त जणेण पद निष्ठान्तक्रिया कियाइ का कर्ता है ।
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