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गाथसप्तशती
परिमार्जित गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी -
कलभमार्तम् ॥ ]
[ उत्क्षिप्तपाश्र्ध्वं तृणच्छन्नकन्थरं निभृत संस्थितावक्षसम् । यूथाधिप ! परिहर मुख मात्र श्रीकं एक रुग्ण एवं मुमूषु कलभ ( हाथी का बच्चा ) पृथ्वी पर पड़ा है। उसके झुंड का नायक गजेन्द्र अन्तिम क्षणों में उसे छोड़ कर नहीं जा रहा है। उसके प्रति किसी सहृदय की उक्ति है ।
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अर्थ --- हे यूथाधिप ! जिसका पार्श्व ( शरीर के बगल का भाग ) ऊपर उठ गया है, जिसका कन्धा तृणों से आच्छादित हो चुका है, जिसका आवक्ष ( छाती तक ) शरीर निचेष्ट ( निभृत ) है तथा जिसके मुख मात्र में ही श्री ( कान्ति) शेष रह गई है उस आर्त ( रोग ग्रस्त ) कलभ को त्याग दो ।
प्रस्तुत गाथा अप्रस्तुत प्रशंसा-शैलो में यूथाधिप व्याज से म्रियमाण पुत्र के मोहपाश में आबद्ध किसी गृहस्थ पुरुष का संकेत करती है ।
चउपासहिण्ण हुयवहविसमाहः हवेढणापिउलं ।
णिव्वाहेउ जाणइ जूहं जूहाहिवो च्चेव ॥ ७८४ ॥ "चारों तरफ से उत्पन्न अग्नि के विषय में पड़े व्याकुल यूथ को यूथाधिप ही निकालने का ढंग जानता है ।"
उपर्युक्त संक्षिप्त अनुवाद केवल पूर्वार्ध के कतिपय पदों और उत्तरार्धं के वर्णन पर अवलम्बित है। न तो त्रुटित पाठ के पूरण का प्रयास किया गया है और न विकृत वर्णाकृति का निवारण । द्वितीय पादस्थ हः प्राकृत की प्रकृति के प्रतिकूल होने के कारण सर्वथा हेय है । यदि 'हवेढणा पिउल' में अवस्थित प्रारम्भिक हकार को समूह शब्द का अन्तिम अवशिष्ट भाग स्वीकार कर लेते हैं। तो समूहवेढणा पिडलं ( समूहवेष्टनापिचुलम् ) - यह एक सार्थक पद संहति बन जाती है । अब समूह के पूर्व समुह्यमान वस्तु का भी निर्देश आवश्यक है। प्रथम पादगत 'हुयवह' ( हुतवह = अग्नि ) को सन्निधि से ज्ञात होता है कि उक्त वस्तु अग्नि से सम्बद्ध ही होगी । ऐसी वस्तु का वाचक शब्द अच्चि ( अच ) है । यदि विषम और समूह के मध्य में अच्चि शब्द और जोड़ देते है तो गाथा का आंगिक वैकल्य दूर हो जाता है । गाथा की संस्कृतच्छाया यह है
चतुष्पार्श्व भिन्न हुतवहविषमार्चिर्वेष्टनापिचुलम् । निर्वोदु जानाति
यूथं यूथाधिप एव ॥
शब्दार्थ - भिन्न = लगी हुई । पिचुल = रूई
अर्थ - चारों पावों में लगी आग की विषम अचियों ( लपटों ) के समूह
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