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अर्थनिरूपण
के समान यहाँ उपमेय के स्थान पर उपमान का प्रयोग किया गया है। इससे आमों के पोतवर्ण, परिपक्वत्व और अदेयत्व की प्रतीति होती है ।
इस प्रकार अस्पष्ट होने के कारण अब तक उपेक्षित पड़ी हुई यह प्राकृत गाथा ध्वनिकान्य का अप्रतिम निदर्शन सिद्ध होती है।
उड्डियपासं तणछण्णकंदरं णिहुअसंठियावक्खं । जूहाहिव ? परिहर मुहमेत्तसरीयं कल... ॥ ७८१ ॥
"गाथा भ्रष्ट और त्रुटित है।" इस अपरिस्फुट और परित्यक्त गाथा का अर्थनिरूपण करने के पूर्व त्रुटित पाठ को जोड़ना परम आवश्यक है । चतुर्थ पाद में छः मात्राएं कम हैं। उपलब्ध पाठ में किसी जूहाहिव ( यूथाधिप ) को सम्बोधित किया गया है और उसके साथ अनुज्ञार्थक क्रिया 'परिहर' दी गई है। यदि यूथाधिप को गजयथाधिप मानते हैं तो परिहर क्रिया के कर्म के लिये उपलब्ध द्वितोयान्त पद 'मुहमेत्तसरीयं पर निर्भर होना पड़ता है। अतः सर्वप्रथम इसो का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। 'सरोयं कोई सार्थक पद नहीं है । यदि स पर इ की मात्रा लगा देते है तो सार्थक शब्द सिरीयं (श्रोकं ) बन जाता है। इस प्रकार एक समस्त पद 'मुहमेत्तसिरीयं' (मुखमात्रे वदनमात्रे श्रो=कान्तिर्यस्य =जिसके मुख मात्र में कान्ति शेष रह गई है ) को उपलब्धि होती है। अब इतना अर्थ स्पष्ट हो जाता है
हे यथाधिप ! जिसके मुखमात्र में कान्ति ( श्री ) शेष रह गई है उसे छोड़ दो। इस आंशिक अर्थोपलब्धि में विशेष्य का अभाव है। आगे के वर्णन में केवल क शेष बचा है। अतः अनुमित होता है कि विलुप्त विशेष्य का प्रथमाक्षर क है। यदि क के पश्चात् लहं और जोड़ देते हैं तो मुहमेत्तसिरीयं ( मुखमात्रयोक) का आधारभूत विशेष्य कलह ( कलभं) शब्द उपलब्ध हो जाता है। यह निसर्गतः जहाहिव ( यूथाधिप ) से सम्बन्धित हैं और परिहर क्रिया का कम भो हो सकता है । इस प्रकार छः मात्राओं में से तीन को पूर्ति हो जाती है। विशेष्य की प्राप्ति के पश्चात् अब हमें केवल विशेषण को आवश्यकता है। यदि कलहं ( कलमं ) के पश्चात् चतुर्मात्रिक विशेषण अट्ट ( आतं ) रख देते हैं तो कलहं का अनुस्वार अग्रिम अट्ट के अकार से मिलकर मकार के रूप में परिणत हो जाता है और बढ़ी हुई एक मात्रा कम हो जाती है। इस प्रकार 'कलहभ,' के द्वारा गाथा का विकलांगत्व तो दूर हो जाता है । परन्तु पूर्वार्ध में किंचिद् वैरूप्य की निवृत्ति शेष रह जाती है। इसके लिये 'तणच्छण्णकेदरं' ( तृणधन्नकन्दरं ) को 'तणघण्णकंधर' ( तृणच्छन्नकन्धर ) पढ़ना होगा क्योंकि कलभ-कलेवर-वर्णन में कन्दरा नहीं कन्धरा (गर्दन ) की ही सार्थकता है।
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