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________________ गाथासप्तशती दिवसे दिवसे निपतति गृहपतिदुहिता चेतुमातुच्छा । संग्रहनति इति व्याप्नोतु वसुधारा कुब्जसहकारे ॥ वसुधारा का अर्थ है – आकाश से होने वाली स्वर्णवृष्टि । ( देखें --- पाइयसद्दमहण्णव ) गाँव से दूर निर्जन में गृहपति ने आम का एक वृक्ष लगाया था । पीले-पीले प आम गिर रहे थे । गृहपति की पुत्री फल लाने के ब्याज से उसी वृक्ष के नीचे अपने गुप्त प्रेमी से मिला करती थी । प्रेमी ने सोचा - अन्य लोग भी आम लोभ से यहाँ आ सकते हैं और मेरे प्रणय- व्यापार में बाधा पड़ सकती है । अतः वह गाँव के लोगों को रोकने के लिये सबको सुनाकर कह रहा हैगृहपति की तुच्छ पुत्री प्रत्येक दिन ( आम ) इकट्ठा करने के लिये आ धमकती है और ( मुझे ) पकड़ लेती है । आकाश से होने वाली स्वर्णवृष्टि आम के कुबड़े (नाटे) वृक्ष पर व्याप्त हो जाये । ( मुझे उससे कुछ लेना-देना नहीं है ) । 상 २० वक्ता व्यंजक शब्दों के द्वारा यह ध्वनित कर रहा है कि गृहपति की पुत्री बहुत ही तुच्छ प्रकृति की है । आमों को सोना समझती है। एक-एक आम पर टूट पड़ती है । मैं स्वयं उसके द्वारा कई बार पकड़ा जा चुका हूँ । अतः तुम लोग वहीं मत जाना । यदि जाओगे तो अपमान ही हाथ लगेगा । गाथा के प्रत्येक पद में विलक्षण व्यंजकता है । गृहपति पुत्री में 'गृहपति' से प्रभुत्वातिशय जनित आतंक, 'आतुच्छा' से औदार्य का अभाव, 'निपतति' से त्वरा, लोभ, कार्पण्य और क्रोध, 'दिवसे दिवसे' से सतत सतर्कता और 'संग्रह जाति' से मोक्षण दौर्लभ्य अभिव्यक्त होता है । एक ओर कुब्ज शब्द फलों के अनाधिक्य की सूचना देकर अनाकर्षण व्यंजित करता है तो दूसरी ओर व्याप्नोतु क्रिया के गर्भ में जो उपेक्षा भाव है वह पूर्वानुभूत अपमान एवं संग्रहण ( पकड़ा जाना ) की प्रतीति के साथ इतरजन गमन प्रतिषेध में जाता है । 'वसुधारा' में यह ध्वनि अन्तर्निहित है कि गृहपति की लालची है कि भूमि पर गिरते हुये पीले पके आमों को आकाश से होने वाली असंभावित सुवर्णवृष्टि के समान महार्ह एवं अपरिहेय समझती है, अतः फल याचनार्थं भी वहाँ मत जाओ । ग्रह, घातु में विद्यमान सम् उपसर्ग की व्यंजना तो सर्वातिशायिनी है । वक्ता उसके माध्यम से इंगित कर रहा है कि यदि कभी गृहपति की पुत्री के साथ मेरा अतिशय शरीर-संयोग देखना तो समझ लेनामैं आमों की चोरी में पकड़ा गया हूँ और छटने के लिये मल्लयुद्ध कर पर्यवसित हो पुत्री इतनी रहा हूँ । वसुधारा पद में साध्यवसाना लक्षणा है । 'चन्द्रो हसति' (चन्द्रमा हँसता है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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