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अर्थनिरूपण
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है । भोइणी का सेठानी अर्थ उचित नहीं है । पाइसद्दमहण्णव के अनुसार उसका अर्थ ग्रामाध्यक्ष की पत्नी है । भोइणी देशी शब्द है ।
संस्कृत योगिन् शब्द से भी विलासिनी के अर्थ में स्त्रीलिंग भोगिनी ( भोइणी ) को सम्बद्ध किया जा सकता है । 'बहुकैर्जल्पितः = कथितम्' - में जल्पस और कथन – इन दो समानार्थक क्रियाओं का प्रयोग उचित नहीं है । संख्यावाचक विशेषण 'बहुक:' किसी संख्येय विशेष्य की अपेक्षा रखता है । वाक्य में कोई कर्ता भी नहीं है । अतः बहुकैः विशेषण के द्वारा जिसे विशेषित किया गया है उस कर्तृपद को ढूँढ़ना आवश्यक है । गाथा के पाठान्तर में 'जंपिएहि' के स्थान पर 'जंतिएहि ' भी दृष्टिगत होता है । इस तृतीयान्त जंतिएहि ( यान्त्रिक:कोल्हू चलाने वालों के द्वारा ) का कर्ता के रूप में 'कथितम्' क्रिया से तो अन्वय हो ही जायेगा बहुकैः विशेषण से भी सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा । 'जंतिएहि ' का लिपिभ्रंश से जंपिएहि हो जाना स्वाभाविक है । संस्कृतच्छाया इस प्रकार होनी चाहिये
बहुकैर्यान्त्रिकै कथितमस्माकं शपथान् कृत्वा । शब्द एव तस्य भद्रो भोगिनीयन्त्रे रस नास्ति ॥ सिसिरे वनदवडड्ढं वसंतमासम्मि उअह संभूयं ।
कंकुसकण्णसरिच्छं दोसइ पत्तं पलासस्स ।। ७७५ ॥
"देखो, शिशिर में जंगल की आग से जला और वसन्त के महीने में पैदा
हुआ पलाश का पत्ता कंकुस ( ? ) के कान जैसा दीखता है ।"
यहाँ प्रश्नचिह्नांकित कंकुस का अर्थ नेवला ( नकुल ) हैं । fare दिअहे णिass गिहवइधूआ सिणेह माउच्छा । संगहाइ त्ति वावउ वसहारा खुज्जसहआरे ॥ ७७९ ॥ "गाथार्थ अस्पष्ट | "
प्रथम पाद में
आर्थिक अस्पष्टता के कारण प्रस्तुत गाथा का अनुवाद नहीं किया गया है संस्कृतच्छाया भी नहीं दी गई है । मूलपाठ विकृत हो गया है। 'frass' और द्वितोय पाद में 'सिणेह' को उपस्थिति गाथा को अस्पष्ट बना देती है । लिपिदोष से ड का इ और चि का सि हो जाना बहुत ही स्वाभाविक है | यदि 'सिणेह' के स्थान पर चिणेउ' और 'माउच्छा' के स्थान पर आउच्छा ( आतुच्छा ) कर दें तो चिणेउमाउच्छा ( चेतुम् आतुच्छा = आ समन्ताद् तुच्छा, सब प्रकार से तुच्छ, ओछो ) हो जायेगा । इससे गाथा सार्थक हो जायेगी । संगहण क्रिया संस्कृत संग्रह, जाति के प्राकृतीकरण से बनो है । गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी -
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