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________________ अर्थनिरूपण उपयुक्त अनुवाद के सम्बन्ध में अनुवादक ने 'विमर्श' में यह लिखा है"विमर्श-वेबर के अनुसार इस गाथा का अर्थ ठोक नहीं लगता।" इससे विदित होता है कि प्रस्तुत गाथा की आर्थिक विसंगति का अनुभव पाश्चात्य विद्वान् वेबर ने भी किया था। अनुवादक के द्वारा बाजार को गाथा का प्रतिपाद्य विषय मानना अयुक्त है । वस्तुतः विलक्षण लावण्यवती व्याधी का ही वर्णन कवि को अभिप्रेत है। 'वाहिरलोएण मंसलुद्धण' का अर्थ 'बाहर के मांसलोभी लोगों को' करना प्राकृत व्याकरण की अनभिज्ञता का द्योतक है। उक्त वर्णन अंगमालिन्य का साधक है । गाथा के पूर्वार्ध का अन्वय इस प्रकार होगा-मंसलुद्धण बाहिरलोएण अंगाई मलिणाई। ( मांसलुब्धेन बाह्यलोकेन अङ्गानि मलिनानि अर्थात् मांस के लोभी बाह्य लोगों ने अंगों को मलिन कर दिना है । ) गाथा में एक ऐसी सुन्दर व्याध-तरुणी का वर्णन है जो बाजार में निर्भय घूमती है, परन्तु किसी लम्पट के चंगुल में नहीं फंसतो। वह अपने अंग तो दूसरों को यह कहकर नहीं सौंपती है कि ये तो मांसलोभी बाहरी लोगों के द्वारा दूषित हो चुके हैं। इनका स्पर्श भी सम्भ्रान्त पुरुषों के लिये निन्दनीय है। रह गया हृदय। उसे भी वह किसी को तभी देने के लिये तत्पर है जब उसके बदले हृदय (सच्चा हादिक प्रेम) प्राप्त हो। न कोई हृदय देने वाला सच्चा प्रेमी मिल रहा है और न वह किसी के वश में हो रही है । निर्भय होकर बाजार में घूमती रहती है । इस प्रकार उसे क्षणिक वासना-पूर्ति के लिये पाखंड-पूर्ण प्रणय का नाटक रचने वाले शील विच्युत एवं लोलुप नरों से आत्मरक्षा का अनुपम उपाय मिल गया है। गाथा में अंगानि ( अंगाई) और हृदयं (हिययं )-दोनों का अन्वय ददाति ( देइ) क्रिया से है। कढिणरवरवीरपेल्लण हलं व पत्थरविणिग्गयग्गिकणे । धचलोआयरियवहे कसरा वि सुहेण वच्चंति ॥७८९॥ अनुवादक ने इस गाथा को अस्पष्ट कहकर अनूदित नहीं किया है । संस्कृतच्छाया भी नहीं दी है । तृतीय पाद में धवल के स्थान पर धचल हो गया है। प्रथम पाद का पाठ अनर्गल, विकृत और अशुद्ध है। 'कढिण' के पश्चात रवर के स्थान पर, खर और वीर के स्थान पर सीर पाठ होना चाहिये। 'हलं' का अनुस्वार उस पर लगी हुई ए को गलित मात्रा का अवशेष वर्तुल शिरोभाग है क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वहां उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। हल शब्द फल का प्राकृतरूप है । गाथा का संशोधित पाठ यह है कढिणरवरसीरपेल्लणहले व पत्थरविणिग्गयग्गिकणे । धवलोआयरियवहे कसरा वि सुहेण वच्चंति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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