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अर्थनिरूपण
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पत्थर रस (जल) से सिक्त होने पर फूट जाता है । वह अपनी यह आशंका
सखी को बता रही है । गाथार्थ - हे सखि ! मैं देख रही हूँ कि मेरा यह कठिन हृदय पाषाण से निर्मित है । यह विरहानल से सन्तप्त है ( तपा हुआ है अतः रस ( स्नेह, जल ) से सिक्त होने पर फूट जायेगा ( क्योंकि पाषाण तपने के पश्चात् पानी पढ़ने पर फट जाया करती है | ) अण्णे ते किल सिहिणो सिणरससेएण हंति विच्छाया । आसाइयरस सेओ होइ विसेसेण णेहजो दहणो ॥७९३ ॥
निर्मित वस्तु आग में
[ अन्ये ते किल" शिखिनः रससेकेन भवन्ति विच्छायाः । आसादितरससेको भवति विशेषेण स्नेहजो दहनः ॥ ]
" स्नेहाग्नि -- वे अन्य अग्नि हैं जो पानी से सींचे जाने पर बुझ जाते हैं, स्नेह से उत्पन्न अग्नि, रस का सेक पाकर भड़क उठता है ।"
उपर्युक्त अनुवाद ठीक नहीं है, क्योंकि मूल में आग भड़कने का अर्थ प्रदान करने वाला कोई भी शब्द नहीं है । संस्कृतच्छाया की शब्दावली के अनुसार उत्तरार्ध का सीधा और स्पष्ट अर्थं तो यह है - स्नेहज अग्नि विशेष रूप से ऐसा है जो रससेक को प्राप्त करता है । इसमें अग्नि भड़क उठने की बात कहाँ से अनुवादक ने घुसेड़ दी है ?
मूल प्राकृत की संस्कृतच्छाया इस प्रकार भी संभव है
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[ अन्ये ते किल शिखिनः स्वकीर्णरससेकेन भवन्ति विच्छायाः । आस्वादित रससेको (आसादित रसश्वेतो; आसादित रसश्रेयाः वा) भवति स्नेहजो दहनः ॥ ]
पूर्वार्धगत 'सि' स्व ( प्राकृत स ) और कीर्ण ( प्राकृत किष्ण ) शब्दों के संयोग से बना है । स ( संस्कृत स्व ) के अनन्तरवर्ती समासस्थ किष्ण के ककार का लोप हो जाने पर इष्ण शब्द बन गया । पुनः पूर्वस्थ स के साथ सन्धि होने पर सिण' की निष्पत्ति हो गई। अपभ्रंश के प्रभाव से सिण्ण का सिण हो जाना स्वाभाविक है । छन्द के अनुरोध से भी ऐसा हो सकता है । 'स्वकीर्णरस सेकेन विच्छायाः' का अर्थ होगा - अपने भीतर फेंके गये रस ( जल ) के निष्पन्द ( बूँद ) से कान्तिहीन । ( स्वस्मिन् आत्मनि कीर्णः प्रक्षिप्तो यो रसः जलं तस्य सेकेन निष्पन्देन विगता छाया येषाम् ) ।
सिण की ग्रासार्थक संस्कृत सिन शब्द का प्राकृत रूप मानकर भी व्याख्या १. बहुलाधिकार से उद्वृत्त स्वर में भी सन्धिकार्य होता है । इसके लिये सू० स्वरस्योदवृत्ते (१/८७) को वृत्ति द्रष्टव्य है ।
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