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________________ गाथासप्तशतो स्थान पर ण रख देते हैं तो पाहाणेण (पाषाणेण) पद बन जाता है । यह सार्थक हैं और कवि-प्रौढोक्ति-सिद्ध कठिन हृदय की रचना के अनुकूल भी है । यह ऐसा उपादान है जो प्रतप्त होने के पश्चात् रस-सेक से फूट जाता है । यद्यपि इतने से ही पूर्वाधं आर्थिक दृष्टि से संघटित हो जाती है तथापि उसका विकलांगत्व दूर नहीं होता। उसमें पांच मात्राओं की कमी रह जाती है। उनकी पूर्ति के लिये ऐसे शब्दों की आवश्यकता है जिनके साथ आर्थिक तालमेल हो सके । 'मे' पद से स्पष्ट है कि गाथा नायिका की उक्ति है । विरहाणलेण तत्तं (विरहानलेन तप्तम् ) से हृदय की वह पूर्वावस्था सूचित हो रही है जिसमें स्फोट का अभाव है और रससिक्तं (रससिक्तम्) से वह उत्तरावस्था लक्षित हो रही है जिसमें स्फोट अवश्यम्भावी है । नायिका अपने हृदय को उस चरमपरिणति से वचाना चाहती है । अतः यह अनिष्टकर परिस्थिति अवश्य ही किसी अन्य के द्वारा उपस्थित की गई होगी। कोई स्वयं ऐसी घातक परिस्थिति क्यों उत्पन्न करेगा ? संभव है मानवती चिरविरहिणी नायिका को सखी ने सहानुभूति पूर्वक नायक का रसमय संयोग कराने का प्रस्ताव किया हो । यदि ऐसा है तो रिक्त स्थान पर सखी का सम्बोधन होना चाहिए । द्विमात्रिक सम्बोधन सहि ( सखि ) शब्द का निवेश कर देने पर शेष तीन मात्राओं के लिये या तो कोई विशेषण रख सकते हैं या फिर सर्वनाम सर्वनाम अधिक उपयुक्त है, क्योंकि विशेषण साभिप्रायता के अभाव से आंगिक शोथ के समान वैरूपय उत्पन्न कर देता है । यहाँ हृदय के लिए इणं ( इदम् ) सर्वनाम का प्रयोग अधिक व्यंजक होगा । उसमें विरहानलोत्तप्त हृदय को प्रत्यक्ष एवं अनुभवमात्रैकगम्य अवस्था-विशेष को प्रतोति अन्तनिहित हैं। अब खंडित गाथा का अखंडित पाठ यों होगाहिययं णियामि कढिणं सहि! इणं पाहाणेण घडियं मे । विरहाणलेण तत्तं रससित्त अंततो फुडइ ॥ 'फ्डइ' का इकार पदान्त में होने के कारण दोघं पढ़ा जायेगा । यह क्रिया 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा' के अनुसार भविष्यकाल का अर्थ देती है । इसकी संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी हृदयं पश्यामि कठिनं सखि ! इदं पाषाणेन घटितं मे । विरहानलेन तप्तं रसासिक्तमन्ततो स्फुटति ॥ प्रसंग-विरहिणी नायिका विछोह सहते-सहते निराश हो गई है। वह समझती है कि मेरा हृदय पाषाण से बना है तथा विरह में तप चुका है। रस (विषयानन्द ) से सिक्त होते ही वह वैसे ही फूट जायेगा जैसे आग में तपाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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