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________________ अर्थनिरूपण २७ मन्द हो रहा है ? यदि उस ( नायिका ) ने इस घटना को सुना होगा तो उसका 'भी' हृदय हर्षातिरेक से फट गया होगा। यहाँ विपरीत लक्षणा से हर्ष का आर्थिक पर्यवसान दुःख में हो रहा है । दुःख और सुख-दोनों के अतिरेक में हृदय फटना लोक प्रसिद्ध है। प्रश्न पुरस्सर तस्यैव पद से यह ध्वनि निकलती है कि तुमने अपने कृत्यद्वारा केवल नायक का ही सन्ताप नहीं कम किया है अपितु नायिका को भी दुःख से मुक्त कर दिया है, क्योंकि इस वृत्तान्त को सुनकर दुःख से हृदय फट जाने के कारण वह मर गई होगी और अहरह उत्पीडित करने वाली मर्मान्तक विरह-वेदना से सर्वदा के लिये छुटकारा पा गई होगी। हिययं णियामि कढिणं" पा हासेण घडियं मे। विरहाणलेण तत्तं, रससित्तं अंतिता फुटह ॥ इसकी न तो संस्कृतच्छाया दो गई है और न इसका अनुवाद ही किया गया है । अनुवादक ने इसे अस्पष्ट घोषित कर छोड़ दिया है । मूल प्राकृत पाठ खंडित और अशुद्ध है । द्वितीय पाद का प्रारंभिक अंश नष्ट हो गया है। उत्तरार्ध के अन्वय में दो शब्द बाधक है-अनुज्ञार्थक बहुवचनान्त क्रिया फुटह और अंतता नियमानुसार जिसका प्रतपन वणित है उसी का स्फोट भी आवश्यक है । अनलताप और रससेक-दोनों का आधार हृदय है । यह शब्द व्याकरणानुसार प्रथम पुरुष एकवचन हैं। अतः अनुज्ञार्थक बहुवचनान्त क्रिया फुटह का मध्यम पुरुष असंगत है । वहाँ प्रथम पुरुष की वर्तमानकालिक क्रिया फटह होगी । लिपि में इ का ह हो जाना स्वाभाविक है 'अंतता' तो स्पष्टतः अन्ततो का विकृत रूप है। " पूर्वार्ध का प्रथम पाद शुद्ध है। गाथा में कढिणं, (कठिनम्) धडियं (घटितम्, तत्तं, (तप्तम्) रससित्तौं (रससिक्तम्)-ये चारों पद हृदय के विशेषण है। इन्हीं विशेषणों की सहायता से खोये हुए पाठ का परिमार्जन संभव है । उत्तरार्घ में तप्त हृदय के रससिक्त होने पर फूट जाने का वर्णन है । इसका कोई कवि कल्पित कारण अवश्य होगा। उसे किसी ऐसी धातु से निर्मित होना चाहिए जो तपने के पश्चात् पानी पड़ने पर फूट जाती हो। पूर्वार्ध में हेतुभूत तृतीया विभक्ति से अनुबद्ध घड़ियं (घटितम) पद हृदय की प्रौढोक्ति सिद्ध संरचना की दिशा में संकेत करता है । प्रथम पादस्थ कढिणं (कठिनम्) पद शब्द में हृदय के काठिन्य का प्रतिपादन है । अतः उसकी रचना किसी कठिन उपादान से होनी चाहिए । 'हासेण' की तृतीया विभक्ति बताती है कि यहाँ कोई हृदय-घटक धातु वाचक शब्द रहा होगा । यदि उपलब्ध पाठ में दूरवर्ती पा को 'हासेण' से संयुक्त करते हैं तो 'पाहासेण' बनता है, यह शक निरर्थक है । यदि 'पाहासेण' में स के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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