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गाथासप्तशतो
आश्चर्य है, वर्षाकालीन मेघों के द्वारा स्पर्धा से आकाश को छा दिया है, फिर भी वह चूता है, इसमें कुछ रहस्य अवश्य होगा ॥ ८ ॥
केत्तिअमेत्तं होहिइ सोहग्गं पिअअमस्स भमिरस्स । महिलामअणछुहाउलकडक्खविक्खेवधेप्पन्तं ॥१॥
[कियन्मात्र भविष्यति सौभाग्यं प्रियतमस्य भ्रमणशीलस्य ।
महिलामदनक्षुधाकुलकटाक्षविक्षेपगृह्यमाणम् ॥] सुन्दरियों के मदनन्तृषाकुल कटाक्षों के द्वारा गृहीत, भ्रमणशील प्रियतम का पता नहीं कितना बड़ा सौभाग्य होगा ? ॥ ८१ ॥ णिअधणि उवऊहसु कुक्कुडसदेन शत्ति पडिबुद्ध । परवसइवाससङ्किर णिअए वि घरम्मि, मा भासु ॥ ८२ ॥ [निजगृहिणीमुपगृहस्व कुक्कुटशब्देन झटिति प्रतिबुद्ध ।
परवसतिवासशङ्किन्निजकेऽपि गृहे मा भैषीः॥] कुक्कुट की आवाज सुनते ही सहमा तुम्हारी आँखें खुल गई हैं। अपनी प्रिया का आलिंगन करो ।डरो मत ! तुम अपने घर में भी रहकर पराये घर की शंका क्यों करते हो? ।। ८२ ॥
खरपवणरअगलत्थिअगिरिऊडावडणभिण्णदेहस्स । धुक्काधुक्कइ जोअं व विज्जुआ कालमेहस्स ॥ ८३ ॥
[खरपवनरयगलहस्तितगिरिकूटापतनभिन्नदेहस्य ।।
धुकधुकायते जीव इव विद्युत्कालमेघस्य ।। ] प्रचण्ड पवन ने जिसका गला पकड़कर शैल-शृंग पर पटक दिया है, उस घायल मेघ के प्राणों के समान दामिनी धुकधुका रही है ।। ८३ ॥ मेहमहिसस्स णज्जइ उअरे सुरचावकोडिभिण्णस्स। कन्दन्तस्स सविअणं अन्तं व पलम्बए विज्जू ।। ८४ ॥
[ मेघमहिषस्य ज्ञायते उदरे सुरचापकोटिभिन्नस्य ।
क्रन्दतः सवेदनमन्त्रमिव प्रलम्बते विद्युत् ॥] इन्द्रचाप की तीखी नोंक से जिसका पेट फट गया है। वेदना से व्यथित होकर कराहते हुए उस मेघ-महिष की आंत के समान चपला चमक रही है।। ८४ ॥
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