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षप्ठं शतकम्
१३९ चोरा सभअसतह पुणो पुणो पेसअन्ति दिट्ठोओ। अहिरक्खिअणिहिकलसे व्व पोढवइआथणुच्छले ॥ ७६ ॥
[ चोराः समयसतृष्णं पुनः पुनः प्रेषयन्ति दृष्टोः ।
अहिरक्षितनिधिकलश इव प्रौढपतिकास्तनोत्सङ्गे ।] सर्प से सुरक्षित निधि-कलश के समान वीर की प्रिया के स्तन पर चोर भय और तृष्णा से मिली हुई दृष्टि डाल रहे हैं ।। ७६ ॥ उव्वहइ णवतणङ्कररोमञ्चपसाहिआई अंगा। पाउसलच्छीअ पओहरेहिं परिपेल्लिओ विज्झो ॥७७ ॥
[ उद्वहति नवतृणांकुररोमाञ्चप्रसाधितान्यङ्गानि ।
प्रावृड्लक्ष्म्याः पयोधरैः परिप्रेरितो विन्ध्यः ॥] पावस लक्ष्मी के पयोधरों का स्पर्श पाकर विन्ध्य शैल के अंग नवतृणों के रोमांच से पूर्ण हो गये ॥ ७७॥
आम बहला वणाली मुहला जलरङ्कणो जलं सिसिरं । अण्णणईण वि रेवाइ तह वि अण्णे गुणा के वि ॥ ७ ॥ [ सत्यं बहला वनालो मुखरा जलरङ्कवो जलं शिशिरम् ।
अन्यनदीनामपि रेवायास्तथाप्यन्ये गुणाः केऽपि ॥ ] बहुत सी नदियों के तट पर वनाली है, जलचर विहंग मधुर कोलाहल करते रहते हैं और उनका जल शीतल है किन्तु रेवा को गुण कुछ और ही हैं ।। ७८॥ एइ इमीअ णिअच्छइ परिणअमालूरसच्छहे थणए । तुझे सप्पुरिसमणोरहे व्व हिअए अमाअन्ते ॥ ७९ ॥
[ आगच्छतास्या निरीक्षध्वं परिणतमालूरसदृशौ स्तनौ ।
तुङ्गौ सत्पुरुषमनोरथाविव हृदये अमान्तौ ॥] आओ, पके बेल से उन्नत उसके स्तन देखो, वें सत्पुरुषों के मनोरथ के समान हृदय में नहीं समा रहे हैं ॥ ७९ ॥ हत्थाहत्थि अहमहमिआइ वासागमम्मि मेहेहि । अव्वो कि पि रहस्सं छण्णं पि णहङ्गणं गलइ ॥ ८०॥
[हस्ताहस्ति अहमहमिकया वर्षागमे मेधैः । आश्चर्यं किमपि रहस्यं छन्नमपि नभोङ्गणं गलति ।।]
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