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गाथासप्तशती
वाउव्वेल्लिअसाउलि थएसु फुडदन्तमण्डलं जहणं । चडुआरअं पई मा हु पुत्ति जणहासिअ कुणसु ॥ ५ ॥ [ वातोद्वेल्लितवस्त्रे स्थगय स्फुटदन्तमण्डलं जघनम् । चटुकारकं पति मा खलु पुत्रि ! जनहास्यं कुरु ॥ ]
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वायु में वस्त्रों के फहराने पर जिनमें अंकित दन्त-लेखा प्रकट हुई जा रही है उन जाँघों को तो ढक लो । बेटी ! चाटुकार पति की हँसी मत कराना ॥ ५ ॥
वीसत्य हसि अपरिसक्किआणं पढमं जलञ्जली दिण्णो । पच्छा वहूअ गहिओ कुडम्बभारो णिमज्जन्तो ॥ ६ ॥ [ विस्रब्धहसित परिक्रमाणां प्रथमं जलाञ्जलिर्दत्तः । पश्चाद्वध्वा गृहीतः कुटुम्बभारो निमज्जन् ॥ ]
बहू ने पहले ही निश्चिन्त हँसना और इधर-उधर घूमना छोड़कर डूबते हुए कुटुंब का भार सँभाला है ॥ ६ ॥
गम्मिहिसि तस्स पास सुन्दरि मा तुरअ वड्ढउ मिअङ्को । बुद्धे दुद्धं मिअ चन्दिआइ को पेच्छइ मुहं दे ॥ ७ ॥
[ गमिष्यसि तस्य पार्श्व सुन्दरि मा स्वरस्य वर्धतां मृगांकः । दुग्धे दुग्धमिव चन्द्रिकायां कः प्रेक्षते मुखं ते ॥ ]
सुन्दरी ! जल्दी क्या है ? चन्द्रोदय होने दो, तब उसके पास चली जाना । दूध में मिले हुए दूध के समान चाँदनी में तुम्हारा मुख कौन देख सकता है ॥ ७ ॥
जइ जूरइ ज़ूरउ णाम मामि परलोअवसणिओ लोओ । तह वि बला गामणिणन्दणस्स वअणे वलइ दिट्ठी ॥ ८ ॥
[ यदि खिद्यते खिद्यतां नाम मातुलानि परलोकव्यसनिको लोकः । . तथापि बलाद्ग्रामणीनन्दनस्य वदने वलते दृष्टिः ॥ ]
भाभी ! यह परलोक व्यसनी संसार दुःखी होता है तो होने दो । मेरी दृष्टि तो पुन: उसी ग्रामणी-पुत्र के मुख पर बार-बार पड़ती है ॥ ८ ॥ गेहं व वित्तरहिअं णिज्ज्ञरकुहरं व सलिलसुण्णविअं । गोहणरहिअ गोट्टं व तीअ वअणं तुह विओए ॥ ९ ॥
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