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सप्तमं शतकम् एक्कक्कमपरिरक्खगपहारसमुहे कुरसमिहुणन्मि । वाहेण मण्णुविअलन्तवाहयोअं अणु मुक्कं ॥१॥
[अन्योन्यपरिरक्षणप्रहारसंमुखे कुरङ्गमिथुने ।
व्याधेन मन्युविगलद्वाष्पधौतं धनुर्मुक्तम् ॥] एक दूसरे की रक्षा के लिए छूटते हुए तीर के सम्मुख कुरंग-दम्पति को खड़ा होते देख कर व्याघ ने करुणा-विगलित आँसुओं से धुला हुआ धनुष त्याग दिया ॥१॥ ता सुहम विलम्ब खणं भणामि कोअ वि कएण अलमह वा। अविमारिअकज्जारम्भआरिणी मरउ ण भणिस्सं ॥२॥ [ तत्सुभग बिलम्बस्व क्षणं भणामि कस्या अपि कृतेनालमथवा। .
अविचारितकार्यारम्भकारिणी म्रियतां न भणिष्यामि ॥] क्षण भर रुको, किसी के सम्बन्ध में कुछ कहना चाहती हूँ, अथवा रहने दो। जिसने बिना सोचे-समझे काम किया है, वह मर जाय, उससे कुछ कहूँगी भी नहीं ॥ २॥ भोइणिदिण्णपहेणअचक्खिअदुस्सिक्खिओ हलिअउत्तो । एताहे अण्णपहेणआण छीओल्लअं देई ॥३॥
[ भोगिनी दत्तप्रहेणका स्वादनदुःशिक्षितो हलिकः पुत्रः । . इदानीमन्यप्रहेणकानां छी इति वचनं ददाति ।। ]
गांव के व्यापारी की स्त्री के हाथ का बायन चख कर यह लम्पट हलवाहा दूसरे घर का बायन पाकर छिः छिः करने लगता है ॥ ३ ॥
पच्चूसमऊहावलिपरिमलणसमूससन्तवत्ताणं । कमलाणं रअणिविरमे जिअलोअसिरी महम्महइ ॥ ४ ॥
[ प्रत्यूषमयूखावलिपरिमलनसमुच्छ्वसत्पत्राणाम् ।
कमलानां रजनिविरामे जितलोकश्रीमहमहायते ॥] सूर्य की किरणों के सम्पर्क से जिनी पंखुरियां प्रस्फुटित हो गई हैं, रात बीतने पर उन कमलों की विश्व विजयिनी शोभा महमहा रही है ॥ ४ ॥
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