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________________ गाथासप्तशतो वाचक होती है। 'काले अक्षर तक को न जानना और नीम के कीड़े के समान होना'-इन दोनों स्थितियों को नरक-निवास का हेतु नहीं कहा जा सकता। 'यदि बराबर हो तो हो'-इस वर्णन का आशय स्पष्ट नही है । गाथा की संस्कृतच्छाया यों होगी कालाक्षरदुःशिक्षित धार्मिक रे निम्ब कीटकसदृश । द्वयोरपि निरयनिवासः समकं यदि भवति तद् भवतु ॥ यह किसी धार्मिक और अध्ययनपरायण तरुण को सुरत के लिये प्रेरित करने वाली कुलटा की उक्ति है । उसकी दृष्टि में अध्ययन काले अक्षरों की कुशिक्षामात्र है और नोरस शास्त्रों के चिन्तन एवं धर्म पालन में समय व्यतीत करने वाला विद्वान् उस कीड़े के समान है जो नीम के कड़ वे फलों के आस्वादन में निरन्तर निरत रहता है। ___ गाथार्थ हे काले अक्षरों को कुशिक्षा प्राप्त करने वाले, हे नीम के कीड़े के समान धार्मिक ! दोनों ( मुझे और तुम्हें ) को भी यदि एक साथ नरक हो तो होने दो। कुलटा कामिनी के द्वारा प्रयुक्त तरुण के विशेषणों की व्यंजकता दर्शनीय है। तरुण की अध्ययनपरायणता और धार्मिकता उक्त कामिनी की मनोरथ सिद्धि में बाधक है । अतः वह वचन पाटवपूर्वक दोनों का विरोध करती है । वह 'कालाक्षर' के प्रयोग के द्वारा अक्षरों में कालुष्य की प्रतीति कराकर उनकी हेयता का ही प्रतिपादन नहीं करती अपितु उसो पद में दुःशिक्षण का हेतु भी उपस्थित करती है। निम्ब कीट सदृश पद के द्वारा धार्मिकता और अध्ययनपरायणता की नीरसता पर किये गये कटाक्ष में यह व्यंजना है कि तुम्हारे जीवन में कोई रस नहीं रह गया है, अतः वह व्यर्थ है। जीवन की सार्थकता केवल रतिसुख में है। उत्तरार्ध में नरक-निवास की स्वीकृति का ध्वनन-व्यापार भी विलक्षण है । नायिका नायक को यह जताना चाह रही कि तुम धार्मिक मान्यता जन्य नरक-भय के कारण मेरा प्रणय अंगीकार नहीं कर रहे हो वह भय तो मुझे भी होना चाहिये था। खेद है, एक अबला होकर भी मैं जिसकी कुछ भी परवाह नहीं करती हूँ, तुम शौर्य एवं पौरुष के पुज पुरुष होकर उसौ से डर रहे हो। इससे बड़ी कायरता और क्या होगी ? होने दो नरक ! हम दोनों साथ-साथ नरक चलेंगे। 'द्वयोरपि' के द्वारा नरक में भी वह तरुण का साथ न छोड़ने की बात कहकर अपने प्रणय की एकनिष्ठता और सत्यता सूचित करती है। उसका अभिप्राय यह है कि हम दोनों को साथ-साथ रहना है, इसका अवसर यदि नरक में ही मिलता है तो क्या आपत्ति है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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