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________________ अर्थनिरूपण अनुवादक - द्वारा दी गई संस्कृतच्छाया में गाथा की व्यंजकता नष्ट हो गई है । नायिका का प्रणय स्वशब्द निवेदित होने के कारण वाच्य बन गया है । कथन में उसकी वचनपटुता नहीं, घृष्टतापूर्ण निर्लज्जता झलकती है । ५२. आणा अणालवंतीए कीरए दोसए पराहुत्तो । ८ णितम्मि णीसिसिज्जइ पुत्ति ! अपुग्यो क्खु दे माणो ।८९० आज्ञाऽनालपन्त्या क्रियते दृश्यते पराभूतः । निभृते निःश्वस्यते पुत्रि ! अपूर्व: खलु ते मानः ॥ " तू बिना बोले ही आज्ञा करती है, वह पराङमुख होकर तुझे देखता है, अकेले में निःश्वास लेता है, बेटी ! तेरा मान अपूर्व है ।" यह अनुवाद और संस्कृतच्छाया — दोनों दोषपूर्ण हैं । 'पराहुत्तो' का संस्कृत रूपान्तर ‘पराग्मुतः' है। 'पाइयसद्दमहण्णव' में 'पराहुत्तों' को पराङमुख के अर्थ में देशी शब्द लिखा गया है, किन्तु यह देशी नहीं है । प्राकृत में गम् के अर्थ में -णी' क्रिया व्यवहृत होती है । उसमें शतृ प्रत्यय लगने पर 'णित' या 'णिन्त' रूप बनता है । 'णितम्मि' उसका सप्तम्यन्त रूप है । उसका संस्कृतरूपान्तर 'निभृते' नहीं, 'निर्गच्छति' है । गाथा में नायिका के लिये प्रयुक्त तृतीयान्त 'अनालपन्त्या' ( अणालवंतीए ) पद ही 'क्रियते' (कीरए) के समान 'दृश्यते' ( दीसए) और 'निःश्वस्यते' ( णीसिसिज्जइ ) क्रियाओं का भी कर्ता है | अनुवाद में 'क्रियते' के साथ तो उसे अन्वित किया गया है, किन्तु शेष दोनों क्रियाओं के कर्तृत्व के लिये 'वह' अनर्गल आक्ष ेप किया गया है । गाथा में नायिका के मान की जिस अपूर्वता का प्रतिपादन है उसकी सिद्धि उक्त अशुद्ध अनुवाद से नहीं होती बिना बोले ही द्वारा नायिका । वैसी नायक के व्यापार हैं । आज्ञा देने में जैसी अपूर्वता की प्रतीति संभव है को देखने ओर लम्बी सासें लेने में नहीं है । ये तो निसर्ग -सिद्ध सभी प्र ेमी मानवती प्रणयिनी को मुड़-मुड़ कर देखते हैं और दीर्घ हैं । परन्तु उक्त आंशिक अपूर्वता भी तब स्वीकार्य थी जब बिना देना संभव होता । आज्ञा देना मौखिक व्यापार है जिसमें बोलना अनिवार्य है । यदि आज्ञा ( शारीरिक क्रियाओं के द्वारा ) सांकेतिक है तो मान की स्थिति साँसें लेते बोले आज्ञा ही कहाँ है ? आज्ञा क्रियते ( आणा कीरए) का अर्थ आज्ञा आज्ञा का पालन करना है । देना नहीं, अपितु फिर भी उसकी घर की बहू रूठ गई है । वह पति से नहीं बोल रही है, आज्ञा का चुपचाप पालन करती जा रही है । जाता है तब उसे ( छिपकर ) देखती है और जब वह ( पति ) पराङमुख हो जब ( घर से ) बाहर निकल जाता है तब दीर्घ श्वास लेती है । उसकी यह विलक्षण दशा देखकर सास कहती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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