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________________ गाथासप्तशतो __ बेटी ! तेरा मान अपूर्व ( विलक्षण ) है क्योंकि ( पति से ) न बोलती हुई तू ( उसकी ) आज्ञा का पालन करती है, पराङ मुख हो जाने पर उसे देखती है और उसके बाहर चले जाने पर दीर्घ साँसें लेती है । तात्पर्य यह है कि यदि इतर महिलाओं के ही समान तेरा मान होता तो तू न पति की आज्ञा का पालन करती, न उसे देखती और न उसके लिये दीर्घ श्वास लेती, अतः तेरा मान अन्य मानिनियों से विलक्षण है। ५३. अल्लिअइ दिट्ठिणिभच्छिओ वि विहुओ वि लग्गए सिचए। पहओ वि चुम्बइ बला, अलज्जए कह णु कुप्पिस्सं ॥८९२॥ आलीयते दृष्टि निर्भत्सितोऽपि विधूतोऽपि लगति सिचये। प्रहतोऽपि चुम्बति बलात् अलज्जके कथं नु कुप्पिष्यामि ॥ "नजर से डाँटने पर भी पास आने लगता है, झाड़ देने पर भी कपड़ा पकड़ लेता है, प्रहार करने पर भी बलपूर्वक चुम्बन करता है, ऐसे निर्लज्ज पर कैसे नहीं कोप करूं।" ____ यह अनुवाद उपहासास्पद है । नायक के समस्त वणित व्यापार कोप-उपशमन के साधक है। यदि वे कोप के हेतु होते तो नायिका कह सकती थी कि ऐसे निलंज्ज व्यक्ति पर मैं क्रोध क्यों न करूं ? यहाँ तो निर्लज्ज होने पर भी नायक की विनम्रता पर नायिका को रोझ जाना चाहिए । गाथा में णु ( नु) निषेधार्थक नहीं है । वह वितर्क एवं वक्रोक्ति का व्यंजक है। 'अलज्जके, में नायक की निन्दा नहीं,प्यार छिपा है । 'विहुओ' का अर्थ है-परित्यक्त ।'झाडू देने पर भी कपड़ा पकड़ लेता है।"--इस वर्णन से प्रतीत होता है, जैसे नायक कोई खटमल है जो झाड़ने पर भी कपड़े से चिपक जाता है । ___नायिका को उसकी सहेली मान करने के लिये उसका रही है । वह बेचारी अपनी विवशता का वर्णन इस प्रकार कर रही है : गाथार्थ-तिरस्कृत कर देने पर भी ( नायक ) निकट आता है, परित्यक्त होने पर भी वस्त्र ( आँचल ) पकड़ लेता है और प्रहार करने पर बलपूर्वक चुम्बन करता है, (ऐसे ) निर्लज्ज पर मैं कैसे कोप करूं । ( अर्थात मैं ऐसे प्रणयोच्छ्वसित पति के प्रति कोप कर ही नहीं सकती। ) ५४-हिमजोअचुण्णहत्थाओ जस्स दप्पं कुणंति राईओ। कह तस्स पिअस्स मए तीरइ माणो हला ! काडं ? हिमयोगचूर्णहस्ता यस्य दर्पं कुर्वन्ति रात्र्यः । कथं तस्य प्रियस्य मया शक्यते मानो हल! ! कर्तुम् ॥ "बर्फीली ठंडक से हाथ तोड़ देने वाली रातें जिसका दर्प करती है, सखी ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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