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अर्थनिरूपण
मैं कैसे उस प्रिय से मान कर सकती हूँ ।" "हिमयोगचूर्णहस्ता' का अर्थ 'बर्फीली ठंडक से हाथ तोड़ देने वाली' करना भाषा के साथ बलात्कार है । यदि afa को वही अर्थ अभीष्ट होता तो वह 'हिमयोग चूर्णितहस्ता' ( हिमजोअचुण्णिअहत्थाओ ) लिखता । पूर्वोद्धृत शब्दानुसारी अशुद्ध अनुवाद ने इस सरस एवं अलंकृत गाथा का अनुपम काव्य-सौन्दर्य ही नष्ट कर दिया है ।
'हिमजोअचुण्ण हत्थाओ' और राईओ पदों में स्थित सहज श्लेष को अनुवादक ht ऋजु बुद्धि नहीं समझ सकी ।
गाथा का भाव समझने के लिये श्लिष्ट और पारिभाषिक शब्दों का अर्थ दे देना आवश्यक है।
योगचूर्ण = तान्त्रिकों के द्वारा वशीकरण के लिये प्रयुक्त होने वाला चूर्णं या भस्म । केवल चूर्णं का भी वही अर्थ होता है । ....
हत्थ (हस्त ) - सहायता, हाथ में होना, अधीन होना ।
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राई
१ - रात्रि
२ - राई ( राजी ) काली सरसों
प्रायः किसी को वश में करने के लिये तन्त्रानुसार सरसों के साथ भस्म ( भभूत) या चूर्ण का प्रक्षेप किया जाता है । कवि ने तान्त्रिक प्रयोग को श्लेष के माध्यम से बड़ी निपुणता से अभिव्यक्त किया है। तरुणी नायिका की सख उसे मान करने की शिक्षा दे रही है । नायिका मान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करती है । वह कहती है- हे सखी ! हिम ( शीत ) रूपी योग्य चूर्ण जिनके अधीन है, ( हाथ में है | ) ( या जिनकी सहायता करता है । ) वे राई के समान रातें जिसके दर्प ( अभिमान ) को उत्पन्न करती हैं, उस प्रियतम के प्रति मैं कैसे मान कर सकती हूँ ?
आशय यह है : -- शिशिर और हेमन्त में शीताधिक्य के कारण महिलायें आवश्यक उष्णता के लिये स्वयं आलिंगन बद्ध हो जाती हैं । ऐसे भयावह शीतकाल में मान की शिक्षा देना व्यर्थ है । हिम ( शीत ) वशीकरणकारी योगचूर्ण है और रात है राई । वे दोनों मिलकर मुझे अनायास ही पति के वशीभूत कर देंगे । मेरा पति मेरी इस दुर्बलता को भली भाँति समझता है । इसीलिये अभिमान में ऐंठा हुआ है । परतु मैं भी तो विवश हूँ । मान मेरे वश का नहीं है ।
५५ - किं भणह मं सहीओ ! करेहि माणं ति कि थ माणेण । सम्भावबहिरे तम्मि मज्झ माणेण वि ण कज्जं ॥ ८९४ ॥
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१ - पाइअसद महण्णव
२ - आप्टे कृत संस्कृत कोश
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