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गाथासप्तशती किं भणथ मां सख्यः! कुरु मानमिति किं स्यान्मानेन ?। सद्भावबाह्ये तस्मिन् मम मानेनापि न कार्यम् ।।
'सखियों ! मुझसे क्या कहती हो कि मान कर ? मान से क्या होगा? सद्भाव रहित उसके प्रति मान की भी जरूरत नहीं।"
इस गाथा का मूल पाठ त्रुटित है । द्वियीय पाद में आवश्यक मात्रायें नहीं है फलतः संस्कृतच्छाया भी ठीक नहीं है । मूल पाठ और संस्कृतच्छाया का स्वरूप यह होना चाहिये :
किं भणह मं सखिओ ! करेहि माणं ति किमेत्थ माणेण । सब्भावबहिरे तम्मि मज्झ माणेण वि ण कज्ज ॥ कि भणथ मां सख्यः ! कुरुमानमिति किमत्र मानेन ।
सद्भावबाह्ये तस्मिन् मम मानेनापि न कार्यम् ।। अनुवाद ठीक है। ५६-जइआ पिओण दोसइ भण ह हला! करस कोरए माणो? ।
अह विट्ठम्मि वि माणो ? ता तस्स पिअत्तणं कत्तो । यदा प्रियो न दृश्यते भणत हला! कस्य क्रियते मानः ? । अथ दृष्टेऽपि मानस्तत्तस्य प्रियत्वं कुतः ॥ "अरी सखियों ! जब प्रिय नगर के सामने नहीं तो, कहो, किससे मान करें ? और जब नजर के सामने है तो भी मान ? तो फिर प्रेम कहाँ ?"
पिअत्तण भाववाचक संज्ञा है उसका अर्थ प्रियत्व है, प्रम नहीं । प्रम की स्थिति नियत नहीं है, वह उभयनिष्ठ भी हो सकता है और एकनिष्ठ भी। प्रियत्वं एक ऐसा धर्म है जो केवल प्रिय में रहता है । नायिका का आशय यह है कि प्रिय की अनुपस्थिति में आश्रयहीन मान व्यर्थ है और जब प्रिय दृष्टि के समक्ष है तब भी मान करें तो प्रिय का प्रियत्व ही कहाँ रह जायेगा (अर्थात् उसके लिए प्रिय शब्द का प्रयोग ही निष्फल है।) ५७-सुहअ! मुहुत्तं सुप्पउ जं ते पडिहाइ तं पि भणिहिसि ।
अज्ज ण पेच्छंति तुहं णिदागरुआइ अच्छीइ ॥९००॥ सुभग ! मुहूर्त स्वपिहि, यत्ते प्रतिभाति तद् भणिष्यसि ।
अद्य न प्रेक्षेते त्वां निद्रागुरुके अक्षिणो ।। "हे सुभग ! मुहूर्त भर सो जा, जो तुझे अच्छा लगे वही कह लेना, आज नींद से भारी आँखें तुझे नहीं देख रही हैं।"
इस गाथा का अनुवाद और संस्कृतच्छाया-दोनों भ्रष्ट है।
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