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अर्थनिरूपण
'सुप्पउ' को सोने के अर्थ में प्रचलित सामान्य प्राकृत क्रिया 'सुप्प' का रूप मानने पर मध्यम पुरुष में प्रथमपुरुषीय प्रत्यय 'उ' के कारण च्युतसंस्कृत दोष आता है । यहाँ सुप्पउ, का 'उ' प्रत्यय भाववाच्य का सूचक है । 'सुप्प' संस्कृत 'सुप्य' का प्राकृत रूप है। 'तुह' युष्मद् का षष्ठ्यन्त प्राकृतरूप ही उसका अर्थ है-तव ( तुम्हारा) गाथा का संस्कृत रूपान्तर यह होगा :
सुभग ! मुहूर्त सुप्यतां यत्तं प्रतिभाति तदपि भणिष्यामि ।
अद्य न प्रेक्षते तव निद्रागुरुके अक्षिणो॥ नायक अन्य प्रेयसी के साथ रात भर जगकर प्रातःकाल घर आया है और नींद के आलस्य में पत्नी को रखैल के नाम से बुलाने की भूल कर बैठता है । पत्नी व्यंग्य करती हुई कहती है
गाथार्थ-हे सुभग ! क्षण भर सो जाइये, जो तुम्हें अच्छा लगता है, मुझे वह भी कह लेना, ( अर्थात् जो प्रिय लगे उसी नाम से बुला लेना । ) आज तुम्हारी, निद्रा से भारी आँखें नहीं देख रही हैं अर्थात् मुझे नहीं पहचान पा रही हैं।
पत्नी का आशय यह है कि नींद से अन्धी आँखों के कारण तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि मैं कौन हूँ और मेरा नाम क्या है। ५८-वेआरिज्जसि मुद्धे ! गोत्तक्खलिएहिं मा खु तं रुवसु ।
किंव ग पेच्छइ अण्णह एदहमेहि अच्छीहि ॥ व्याक्यारितारासि मुद्धे ! गोत्रस्खलिता खलु तद् रुदिहि । किमिव न प्रेक्षतेऽन्यथा एतावन्मात्राभ्यामक्षिभ्याम् ॥
"अरी ना समझ ! उसने तुझे अन्य नामों से पुकारा है, इस कारण उसे मत रुला, क्या वह इतनी ( एतावन्मात्र) आँखों से तुझे नहीं देखती।"
पह अनुवाद प्रसंग विरुद्ध और असंगत है। वेआरिज्जासि की संस्कृतच्छाया 'व्याकारिताऽसि' नहीं होगी क्योंकि 'इज्ज' या 'इज्जा' का निष्ठा (क्त ) के अर्थ में प्रयोग नहीं होता। यहाँ 'इज्ज' कर्मवाच्य का प्रत्यय है। 'सि' मध्यमपुरुष एक वचन की विभक्ति है । 'वेआर' क्रिया वञ्चनार्थक है । 'रुदिहि' का अर्थ रुलाना नहीं, रोना है । 'तं' का अर्थ न तो तम् ( उसको) है न तट, वह त्वम् के अर्थ में प्रयुक्त है । अतः संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार होगा
वञ्च्यसे मुग्धे! गोत्रस्खलिता खलु त्वं रुदिहि ।
किमिव न प्रेक्षतेऽन्यथा एतावन्मात्राभ्यामाक्षिभ्याम् ।। अनुवाद के अन्तर्गत 'अरी नासमझ !" यह लिखकर जिस तरुणी को स्त्री
१. ईस इज्जो क्यस्य है० सू० ३/१६० ।
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