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________________ गाथासप्तशती लिंग में सम्बोधित किया गया है उसे अन्य नामों से पुकारने वाली भी स्त्री ही प्रतीत होती है क्योंकि उसके लिये नहीं देखती' क्रिया का प्रयोग है। कोई युवती किसी स्त्री के द्वारा अन्य नामों से पुकारे जाने पर न दुःखी होती है और न कोप ही करती है। जब पति अथवा प्रेमी अन्य नाम से पुकारता है तब उसको अन्यत्र अनुरक्त समझकर दुःख अथवा कोप का होना स्वाभाविक है । अतः उक्त अनर्गल अनुवाद उपेक्षणीय है। गाथा का भाव यह है कि । नायक ने चिढ़ाने और छलने के लिये नायिका को अन्य नामों से बुलाया है। इससे उसको ( नायक को) सचमुच अन्य महिलाओं में ( जिनके नामों से उसे बुलाया गया है ) अनुरक्त समझ कर वह रो पड़ती है ! उसकी सखी वास्तविकता को स्पष्ट करती हुई कहती है-'तुम रोओ मत । पति ने केवल वंचना के लिये तुम्हें अन्य महिलाओं के नामों से बुलाया है। वह तुम्हें चिढ़ाकर केवल आनन्द लेना चाहता है। यदि उसमें चारित्रिक स्खलन होता तो वह गोत्रस्खलन के कारण अवश्य लज्जित हो जाता और शिर नीचा कर लेता । परन्तु यह सब कुछ नहीं हुआ। वह औत्सुक्य और विस्मय से विस्फारित नेत्रों से तुम्हें देख रहा है। लज्जा के स्थान पर औत्सुक्य और विस्मय का प्रकाशन उसे निर्दोष सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। अतः तुम्हारा दुःखी होना अनुचित है । गाथा में 'गोत्रस्खलनः' और 'एतावन्मात्राभ्याम्'-पदों के द्वारा अद्भुत व्यंजकता आ गई है । 'गोत्रस्खलनः' का बहुवचन नायक के कृत्रिम गोत्रस्खलन का प्रत्यायक है क्योंकि इतनी अधिक तरुणियों से एक साथ उसका अनुराग विश्वसनीय नहीं। 'एतावन्मात्र' से नेत्रविस्फारण का वास्तविक और अनुभवमात्रैकगम्य स्वरूप बताकर एक ही अनुभाव से औत्सुक्य एवं विस्मय-इन दोनों भावों की प्रतीति कराना कवि के असाधारण काव्यवैदग्ध्य का परिचायक है। उक्त भाव नायक को निर्दोषता के अभिव्यंजक है। 'मुग्धे' पद उनका सहायक है । "किमिव' से प्रेक्षण व्यापार की अनिर्वचनीयता ध्वनित हो रही है । ___गाथार्थ-हे मुग्धे! पति ने अन्य महिलाओं के नामों से तुझे बुलाया है ( गोत्रस्खलन किया है ) तो रोओ मत । तुम छली जा रही हो। क्या वह इतनी मात्रा वाले ( इतने बड़े-बड़े ) नेत्रों से कुछ अन्य प्रकार से नहीं देख रहा है ? ५९-सोत्तुं सुहं ण लब्भइ अव्वो ! पेम्मस्स वंकविसमस्स । दुग्धडिअमंचअस्स व खणे खणे पाअपडणेण ।। श्रोत सुखं न लभ्यते अव्वो! प्रेम्णो वक्रविषमस्य । दुर्घटितमञ्चकस्येव क्षणे क्षणे पादपतनेन ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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