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अर्थनिरूपण "ओहो ! गलत ढंग से बने मष्चक (खाट) के समान, जिसके पाये क्षणक्षण गिरा करते हैं, वक्र और विषम प्रेम के कारण सोने का सुख नहीं मिलता है।"
यह अनुवाद अधूरा है । इसके दोषपूर्ण वाक्य-विन्यास ने अधूरे अर्थ को भी उलझा दिया है।
गाथा में वक्र विषम-प्रेम की उपमा दुर्घटित मंचक से दी गई है । वह अवश्य ही किसी साधर्म्य पर अवलम्बित होगी। परन्तु अनुवादक ने उसे स्पष्ट नहीं किया है। ___ अनुवाद में 'न सो पाने' का हेतु 'वक्रविषम' प्रेम को बताया गया है। उक्त शब्द में षष्ठी है, हेतु में तृतीया होती है या पंचमी । गाथा में हेतुवाचक तृतीयान्त पद 'पादपतनेन' (पाअपडणेण ) विद्यमान है। अतः 'वक्रविषमप्रेम' का हेतुत्व असंगत है । 'पादपतन' ( पाअपडण ) में श्लेष है। उसका एक अर्थ है, पाये का गिर जाना और दूसरा अर्थ है, ( नायक का) चरणों पर गिरना। प्रथम अर्थ का सम्बन्ध उपमान मंच से है और द्वितीय का उपमेयभूत 'वक्रविषमप्रेम' से । 'अव्वो' खेदसूचक प्राकृत निपात है। सोत्तुं की संस्कृतच्छाया प्रकरण विरुद्ध है, वहाँ स्वस्तु होना चाहिये ।
प्राकृत गाथा अत्यन्त सरस एवं चमत्कृतिपूर्ण है। भ्रष्ट अनुवाद ने उसका साहित्यिक स्तर ही गिरा दिया है।
नायक खंडिता अथवा मानवती नायिका को प्रसन्न करने के लिये बार-बार उसके चरणों पर गिर रहा है। वह प्रत्येक बार उस अपराधी का तिरस्कार ही करती जा रही है। वह इतना धृष्ट है कि मानता ही नहीं। नायिका उसके छलपूर्ण प्रणय से विरक्त हो चुकी है और निद्रा की अवस्था में अपनी मानसिक अशान्ति भुलाना चाह रही है। हठो नायक क्षण-क्षण पैरों पर गिर कर उसे सोने नहीं दे रहा है । अतः वह खोक्ष कर कहती है
खेद है, जिस प्रकार अच्छे ढंग से न बने हुये मंचक ( पर्यक) के पायों के गिर पड़ने के कारण सोने का सुख नहीं मिलता है उसी प्रकार ( इस) वक्र (छलपूर्ण ) और विषम ( प्रेमी और प्रेमिका में समान रूप से न रहने वाले, असमान ) प्रेम से सम्बन्धित (तुम्हारे ) पादपतन ( मेरे पैरों पर गिरने की क्रिया ) से भी मैं सुखपूर्वक सो नहीं पा रही हूँ । ६०-चड्ढउ ता तुह गव्यो, भण्णसि रे जह विहंडणं वअणं ।
सच्चं ण एइ णिहा तुए विणा, देहि ओआसं ॥ ९०६ ॥ वर्धतां तावत् तव गर्वो भणसि रे यथा विभण्डणं वचनम् । सत्यं नैति निद्रा त्वया विना देहि अवकाशम् ॥
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