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अर्थनिरूपण
एवमेवाकृत पुण्याऽप्राप्तमनोरथा विपत्स्ये ।
जनवादोऽपि न जातस्तेन समं हलिकपुत्रेण ।। "उस हलिक के छोकरे के साथ न कोई लोगों में अपवाद फैला है, यू हो अभागिन, मनोरथ को न प्राप्त मैं विपत् भोगने वाली हूँ।"
न तो यह अनुवाद ठीक है न इसकी भाषा । विवज्जिस्सं' का अर्थ विपद् भोगना नहीं है । उक्त क्रिया यहाँ मरण का अर्थ देती है ।
गाथा में जिस तरुणी का वर्णन है उसका गुप्त प्रेम किसी हलिक पुत्र से है । वह सामाजिक प्रतिबन्धों के कारण अपने प्रणयी से प्रत्यक्ष मिल नहीं पाती है। अहरह विरह-वेदना से तड़पती हुई सोचती है कि मैं बड़ी पापिन हूँ। इसी प्रकार तड़पते-तरसते मर जाऊँगी, मेरे मनोरथ कभी पूरे ही नहीं होंगे। यदि उस हलिक पुत्र के प्रम को लेकर समाज में मेरी निन्दा भी हो गई होती तो यह अकृतार्थ जीवन सार्थक हो गया होता। खेद है, मैं लोगों में उसकी प्रणयिनी के रूप में अपनी पहचान भी न बना पाई।
गाथार्थ-मैं अकृतपुण्या ( जिसने पुण्यकर्म नहीं किये हैं ) बिना मनोरथ पूर्ण हुये ( अप्राप्तमनोरथा) ऐसे ही ( तरसती हुई ) मर जाऊँगी ! ) लोगों में हलिकपुत्र के साथ मेरी निन्दा भी न हुई । ___ 'विवज्जिस्सं' क्रिया से नायिका के नैराश्य की चरमावस्था-अभिव्यक्त होती है । 'जणवाओ वि ण जाओ' से लोक निन्दा भीरु नायिका का पश्चात्ताप ध्वनित होता है । यदि वह निर्भय होकर हलिकपुत्र से संयुक्त हुई होती तो संभोग सुख अवश्य प्राप्त हुआ होता, इच्छा पूरी हो गई होती। इसके पश्चात् लोग करते क्या ? निन्दा ही तो करते ! परन्तु वह इतनी भीरु ठहरी कि प्रिय संयोग के लिये लोकनिन्दा का शाब्दिक दण्ड भोगने का भी साहस नहीं जुटा पाई। ५१. कालक्खरदूसिक्खिअर्धाम्मअ रेगिम्बकोइअसरिच्छ ।
दोण्ण वि णिरअणिवासो समअं जं होइ ता होदु ॥७२॥ कालाक्षरदुःशिक्षित बालक रे लग भम कण्ठे ।
द्वयोरपि नरकनिवासः समकं यदि भवति तद् भवतु ॥ "हे धार्मिक ! तू काले अक्षर तक को नहीं जानता और नीम के कीड़े के समान है दोनों तरह तुझे नरक में ही रहना है, यदि बराबर हो तो हो।"
उपयुक्त अनुवाद भ्रष्ट है और संस्कृतच्छाया भी अशुद्ध है । द्वयोः (दोण्णं) का अर्थ "दोनों प्रकार से''-यह करना व्याकरण की बलाद् अवहेलना है। षष्ठयन्त 'द्वयो': का अर्थ है-दोनों का । षष्ठी प्रकारवाचक नहीं, सम्बन्ध
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