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गाथासप्तशतो
तथापि व्रत के अनुरोध से उन्हें वैसा करना पड़ता था। जो स्त्री पूछने पर पति का नाम नहीं बताती थी उसे लता से मारा जाता था । शीलवती महिलायें तो व्रत-भंग के भय से पति का नाम बता देती थीं । परन्तु जिस विवाहिता स्त्री का प्रेम अन्य पुरुष से होता था वही दुविधा में पड़ती थी और मार सहती थी। हलवाहे की उक्त वधू भी ऐसी ही शीलविच्युत स्त्री थी। वह लता के प्रहार से पहले तो डरी, फिर उसने निर्भीकता से अपने उप पति का नाम बता दिया । उसकी यह निर्भीकता प्रणयोत्सुक युवतियों के लिए सीखने का विषय बन गई।
गाथार्थ-नवलता के प्रहार से त्रस्त हलिकवधू ने वह किया जिसे आज भी घर-घर में युवतियाँ सीखना चाहती हैं। ४९-धण्णो सिरे हलिद्दअ ! हलिअसुआपीणथण भरुच्छंगे।
पेच्छंतस्सविरे पइणो जह तुह कुसुमाइ निवडंति ॥८५७॥ धन्योऽसि रे हरिद्रक ! हलिकसुतापीनस्तन भरोल्सङ्गे । प्रेक्षमाणस्यापि पत्युर्यथा तव कुसुमानि निपतन्ति ।
"हे हरिद्रावृक्ष ! तू धन्य है कि हलिकसुता के पीन स्तनों से युक्त अंक में तेरे फूल गिरते रहते हैं और ( मेरा ) पति देखता रहता है।"
यह अनुवाद असंगत है । यदि हरिद्रा के पुष्प हलिकसुता के पीन स्तनयुक्त अंक में गिरते हैं और उसके कारण कोई स्पृहयालु तरुण उसे ध्यान पूर्वक देखने लगता है तो उसकी प्रियतमा को प्रसन्नता नहीं, ईर्ष्या होनी चाहिये । इस स्थिति में वह ( तरुण की प्रिया ) हरिद्र । वृक्ष को धन्य क्यों कहेगी ? गाथा में 'पेक्खंतस्स वि पइणो' (प्रेक्षमाणस्यापि पत्युः) में 'वि' के माध्यम से जो विरोध व्यंजित हो रहा है उसे अनुवाद छ ही नही पाया है। हलिकसुता पिता के गृह में रहकर हरिद्रा-क्षेत्र में काम कर रही है। उसका पति भी ससुराल में आया है और निकट ही खड़ा है। वह अपनी पत्नी ( हलिकसुता ) के स्तन भार समृद्ध अंक में ( जहाँ केवल पति को ही स्थान मिलता है ) हरिद्रा पुष्पों को स्थान प्राप्त करते देख रहा है । इस स्पृहणीय दृश्यसे ईर्ष्या-कलुषित होकर कोई लोलुप तरुण कह रहा है :
हे हरिद्रक ! तू धन्य है, क्योंकि पति के देखते रहने पर भी ( उसी के सामने ) तेरे पुष्प हलिकसुता के पोन पयोधरों से परिपूर्ण अंक में गिर रहें हैं। यह सौभाग्य हमारे जैसे अभागे युवकों का नहीं है । ) ५०-एमेअ अकअपुण्णा अप्पत्तमणोरहा विवज्जिस्सं ।
जणवाओ वि.ण जाओ, तेण समं हलिअउत्तेण ॥ ८५९ ॥
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